Global Crime: ये 1 करोड़ लोग न बैंक खाता खोल सकते हैं, न मोबाइल सिम खरीद सकते हैं

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राष्ट्रवाद के दौर में बिना देश के भटक रहे हैं 1 करोड़ इंसान
25 देशों में मां अपने बच्चों को नहीं दे सकती नागरिकता

कहीं आपसी रंजिश तो कहीं युद्ध के कारण समस्या बनी नागरिकता

stateless people

केस नंबर 1: नेपाल की दीप्ति गुरुंग ने पिछले दिनों द हेग में हुए एक सम्मेलन में जब अपनी कहानी सुनाई तो वहां मौजूद हर शख्स की आंखें गीली हो गईं। उनकी दो बेटियां नागरिकताविहीन थीं। दीप्ति ने बताया कि नेपाल के कानून के मुताबिक ​एक मां अपने बच्चों को अपनी नागरिकता नहीं दे सकती। सिंगल मदर दीप्ति की बेटी नेहा और निकिता नागरिकताविहीन होने के कारण हर तरह के नागरिक अधिकार से वंचित थीं। नेहा डॉक्टर बनना चाहती थी, लेकिन नागरिकता न होने के कारण उन्हें मेडिकल परीक्षा में प्रवेश नहीं मिल सका। दीप्ति ने बताया— “अपनी बेटी को किताब बंद करते देखना मेरे लिए काफी दुखद और भयावह था। मेरी बेटी ने अपने सपनों को पूरा करने के लिए काफी मेहनत की थी।” हालांकि दीप्ति की बेटी कुछ हद तक खुशकिस्मत रहीं। बाद में एक लंबी लड़ाई के बाद वे नागरिकता हासिल करने में कामयाब रहीं, और अब वह वकील बनने की तैयारी कर रही हैं।

केस नंबर 2: नेपाल की दीप्ति की ही तरह ओमान की हबीबा अल हिनाई की कहानी है, जिनके बेटे को ओमान में मुश्किलात का सामना करना पड़ा। हबीबा का बेटा हा​फिज सि​र्फ अपने जर्मन पिता की नागरिकता प्राप्त कर सकता है। ओमान के लोगों के लिए मुफ्त स्वास्थ्य की व्यवस्था है, लेकिन जब प्रीमैच्योर पैदा हुए हाफिज का इलाज हुआ तो उसके ​खर्च का बिल भेजा गया। कारण पूछने पर हबीबा को बताया गया कि कि वे ओमानी हैं, लेकिन हाफिज के पिता विदेशी हैं। इसलिए वह ओमानी नहीं है। साथ ही 18 साल की उम्र होते ही हाफिज को ओमान छोड़ने के लिए मजबूर ​किया गया। आज वह बर्लिन में इंजीनियरिंग कर रहा है। हालांकि उनके बेटे को जर्मनी की नागरिकता मिल चुकी है लेकिन कई ऐसी ओमानी मां और विदेशी पिता हैं, जि​नके बच्चों के पास किसी देश की नागरिकता नहीं है। ओमानी एसोसिएशन फॉर ह्यूमन राइट्स चलाने वाली हबीबा अल-हिनाई ने भी आखिर ओतानी नागरिकता छोड़ दी। वे बताती हैं— “यदि मेरे बच्चे वहां नहीं हैं तो मैं ओमान को अपना देश नहीं मान सकती। ऐसे में इसे घर कहने का क्या मतलब है।”

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दुनिया के 1 करोड़ से ज्यादा लोग दीप्ति और हबीबा के बच्चों की तरह खुशकिस्मत नहीं हैं।

असल में, पूरी दुनिया में इन दिनों में राष्ट्रवाद की बहस तेज है। ऐसे में मान लिया गया है कि दुनिया की करीब साढ़े सात अरब से ज्यादा की आबादी में हर इंसान के पास अपना घर हो या न हो लेकिन अपना देश जरूर है। हैरत की बात यह है कि राष्ट्रवाद की लड़ाई में हजार—दो हजार नहीं एक करोड़ से ज्यादा इंसान ऐसे हैं, जो किसी देश की नागरिकता नहीं रखते हैं। यह समस्या लगातार बड़ी होती जा रही है और इसके लिए कुछ कानून तो कहीं देशों की आपसी रंजिश तो कहीं युद्ध और अन्य दीगर कारण जिम्मदार हैं। इसकी वजह से दुनिया की 1 करोड़ से ज्यादा की आबादी स्टेटलैस यानी नागरिकता विहीन है।

मां नहीं दे सकती इन ​देशों में बच्चों को अपनी नागरिकता
विश्व के करीब 25 देश तो ऐसे हैं, जहां महिलाएं अपने बच्चों को अपनी नागरिकता नहीं दे सकती हैं। इनमें नेपाल, ओमान, कुवैत, सऊदी अरब, सूडान इत्यादि शामिल हैं। हाल ही में द हेग में ‘स्टेटलैस’ विषय पर हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में कहा गया कि जो देश बच्चों को उनकी मां की नागरिकता देने से मना कर रहे हैं वे उन परिवारों के साथ अन्याय कर रहे हैं। साथ ही वे देश के विकास में भी बाधक बन रहे हैं।

मामला संवेदनशील इसलिए कोई देश नहीं रखता रिकॉर्ड
स्टेटलैस उन लोगों को कहा जाता है जिनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है। राष्ट्र राज्यों के उदय के साथ पहले विश्वयुद्ध के बाद यह समस्या सामने आई थी। आज भी यह मामला इतना संवेदनशील है कि कोई भी देश इसका रिकॉर्ड नहीं रखता। अंतरराष्ट्रीय संगठनों के आकलन के अनुसार करीब 1 करोड़ लोगों के पास किसी देश की नागरिकता नहीं है। यदि बच्चों को पिता या मां की नागरिकता नहीं मिलती है तो वे स्टेटलैस हो जाते हैं। आमतौर पर पिता की नागरिकता हर बच्चे को मिल जाती है, लेकिन कई देशों में सिंगल मदर को नागरिकता देने का अधिकार नहीं है। ऐसा तब होता है जब पिता गुम हो जाएं, मर जाएं, युद्ध के दौरान लापता हो जाएं या खुद बिना नागरिकता वाले हों। तब बच्चे स्टेटलैस हो जाते हैं। इसका अर्थ ये है कि वह व्यक्ति किसी भी देश का मान्यता प्राप्त नागरिक नहीं है।

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मुश्किलें कम नहीं
बिना नागरिकता वाले लोगों को काफी ज्यादा अन्याय का सामना करना पड़ता है। उन्हें बैंक खाता खोलने, मोबाइल फोन की सिम कार्ड खरीदने, यात्रा करने और लाइसेंस लेने पर ही रोक होती है। कुल मिलाकर उन्हें आजादी से जीने का हक ही नहीं होता है। इस तरह ये लोग अपने ही देश में एक ऐसे अपराध के लिए भगोड़े की तरह रहते हैं, जो उन्होंने किया ही नहीं होता है।

“भेदभाव वाले कानून ने नागरिकताविहीनता को बढ़ावा दिया है और विकास में बाधक बना है। इससे लोगों में समाज के विकास के प्रति योगदान करने की क्षमता कम हुई। इसका परिवारों पर दुखद प्रभाव भी पड़ सकता है।”
कैथरीन हैरिंगटन, समान राष्ट्रीयता अधिकारों के वैश्विक अभियान की सदस्य

आईएसआई के मुताबिक 1.5 करोड़ स्टेटलैस आबादी
संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक पूरी दुनिया में 1 करोड़ की आबादी स्टेटलैस है। यह आंकड़ा पिछले कई सालों से स्थिर बना हुआ है, क्योंकि इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है। हालांकि 2017 में संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएचसीआर ने आंकड़े जुटाने के बाद प्रकाशित किए तो 39 लाख स्टेटलैस लोगों का रिकॉर्ड ही मिल सका। स्टेटलैस लोगों का पूरा आंकड़ा जुटाना न तो व्यावहारिक रूप से संभव है और न ही राजनीतिक रूप से। विभिन्न देश मानते ही नहीं कि उनके देश में कोई नागरिकताविहीन है। वे उन्हें घुसपैठिए या फिर शरणार्थी कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं। 2014 में इंस्टीट्यूट आफ स्टेटलैसनैश एंड इन्क्लूजन (ISI) ने इस समस्या पर ध्यान देना शुरू किया। आईएसआई के मुताबिक इस वक्त दुनिया के 1.5 करोड़ आबादी स्टेटलैस है।

इन देशों में हैं सर्वाधिक आधिकारिक स्टेटलैस

बांग्लादेश           932,204
कोट द इवोरिया 692,000
म्यांमार             621,763
थाईलैंड             486,440
लातविया          233,571
सीरियन अरब रिपब्लिक 160,000
कुवैत                 92,000
उज्बैकिस्तान    85,555
रूस                   82,148
इस्टोनिया         80,314

(सभी आंकड़े 2017 के अंत तक)
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