Mob-Lynching: देश के सर्वोच्च कार्यकारी का ध्यानाकर्षण बनाम नफरत के माहौल का ‘झूठा आख्यान’

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Mob Lynchingदेश के 4 जनवादी—प्र​गतिशील लेखक संगठनों ने की 62 लेखकों—कलाकारों के बयान की भर्त्सना

नई दिल्ली। (Mob-Lynching) देश में बीते 6 साल से जारी असहिष्णुता की बहस ने अब एक नया मोड़ ले लिया है। हाल ही में 49 लेखकों—कलाकारों ने एक संयुक्त पत्र लिखकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ध्यानाकर्षण देश में बढ़ती मॉब लिंचिंग (Mob-Lynching) और नफरत के माहौल की ओर दिलाया था। इसके विरोध में सत्ताधारी भाजपा से नजदीकी रखने वाले 62 लेखकों का जवाबी पत्र आया, जिसमें असहिष्णुता और मॉब लिंचिंग (Mob-Lynching) को झूठा बताते हुए इसे सरकार को बदनाम करने की साजिश करार दिया गया था। अब देश के चार प्रमुख जनवादी और प्रगतिशील लेखक संगठनों ने इस जवाबी पत्र की भर्त्सना करते हुए कहा है कि बुद्धिजीवी और कलाकार की खाल ओढ़े इन हत्या-सत्ता-समर्थकों की हम भर्त्सना करते हैं और इनसे उम्मीद करते हैं कि भविष्य में कोई बयान जारी करते हुए ये ओढ़ी हुए खाल की भी थोड़ी परवाह करेंगे। बुद्धिजीवी और कलाकार होने के दावेदार के रूप में ही नहीं, बतौर नागरिक भी, इन्हें अल्पसंख्यकों और दलितों की हत्याओं (Mob-Lynching) का बचाव करते हुए इस तरह का बयान जारी नहीं करना चाहिए।

इस पत्र को जनवादी लेखक संघ के मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, प्रगतिशील लेखक संघ के राजेंद्र राजन, जन संस्कृति मंच के मनोज कुमार सिंह और दलित लेखक संघ के हीरा लाल राजस्थानी की ओर से 29 जुलाई को जारी किया गया है।

पत्र का पूरा मजमून इस प्रकार है:—
लेखक-कलाकार हमेशा से सत्ता के विरोध में रहे हैं, लेकिन मोदीराज में सत्ता के विरोध का विरोध एक स्थायी रुझान बनता जा रहा है। जब 2015 में लेखकों-कलाकारों-वैज्ञानिकों ने अपने पुरस्कार लौटा कर सत्ताधारी दल की असहिष्णुता का विरोध किया तो एक हिस्सा, भले ही इस हिस्से के लोगों का क़द अपने-अपने कार्यक्षेत्र में उतना बड़ा न हो, उनके विरोध में उठ खड़ा हुआ। जब 23 अक्टूबर 2015 को प्रो. कलबुर्गी की शोकसभा की मांग के साथ लेखक-कलाकार साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक के मौक़े पर अपना मौन जुलूस लेकर पहुँचे, तब वहाँ भी भाजपा समर्थक लेखकों-कलाकारों का एक जमावड़ा इनके विरोध में मौजूद पाया गया जिसमें नरेन्द्र कोहली जैसे औसत दर्जे के लोकप्रिय लेखक को छोड़ दें तो कोई प्रतिष्ठित नाम नहीं था।

इसके बाद अनुपम खेर के नेतृत्व में उसी वर्ष सत्ताधारी दल के समर्थन में इंडिया गेट पर एक प्रदर्शन हुआ जिसमें कलाकारों के नाम पर बड़ी संख्या में लम्पट तत्व शामिल थे जिन्होंने पत्रकारों और विशेष रूप से महिला पत्रकारों के साथ खुलेआम बदसलूकी की। 2019 के आम चुनावों से पहले जब 210 बुद्धिजीवियों ने मोदीराज को ख़त्म करने की एक अपील जारी की तो कुछ ही दिनों के भीतर मोदीराज का समर्थन करती हुई एक अपील 600 तथाकथित बुद्धिजीवियों के हस्ताक्षर के साथ जारी की गयी। उनमें गिने-चुने ही ऐसे लोग थे जिन्हें खुद उनके क्षेत्र में भी कोई ठीक से जानता हो।

और अब जब 49 नामचीन कलाकारों-बुद्धिजीवियों ने, जिन पर यह देश गर्व और भरोसा करता है, प्रधानमंत्री मोदी के नाम खुला पत्र लिखा है तो जवाब में प्रधानमंत्री ने नहीं, उनके 62 निर्लज्ज समर्थकों ने पत्रोत्तर लिख भेजा है| यह पत्रोत्तर अडूर गोपालकृष्णन, मणि रत्नम, अनुराग कश्यप, आशीष नंदी, अपर्णा सेन, सुमित सरकार, श्याम बेनेगल, शुभा मुदगल जैसे लोगों द्वारा उठाये गए एक भी सवाल का जवाब नहीं देता, बस पलट कर कुछ और सवाल उठाते हुए यह साबित करने की बेहद लचर कोशिश करता है कि मूल पत्र में आयी शिकायतें राजनीतिक पक्षधरता से निकली हैं।

दोनों पत्रों को सामने रखने पर यह बिलकुल साफ़ हो जाता है कि राजनीतिक-दलगत पक्षधरता किस पत्र में असंदिग्ध है। जहाँ पहला पत्र मुसलमानों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों की लिंचिंग की ओर प्रधानमंत्री का ध्यानाकर्षण करता है और उनसे यह अपील करता है कि देश के सर्वोच्च कार्यकारी के रूप में उन्हें हत्याओं के लिए राम के नाम के दुरुपयोग तथा साम्प्रदायिक-सामुदायिक नफ़रत से प्रेरित अपराधों के ख़िलाफ़ कठोर और निर्णायक क़दम उठाने चाहिए, वहीं दूसरा पत्र मॉब-लिंचिंग की घटनाओं को सीधे-सीधे ‘झूठे आख्यान’ की श्रेणी में डाल देता है और भाजपा-आरएसएस की भाषा का इस्तेमाल करते हुए (‘टुकड़े-टुकड़े’, ‘जब कैराना से हिन्दू पलायन कर रहे थे तब ये चुप थे’, ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ इत्यादि) इन कलाकारों-बुद्धिजीवियों को मौजूदा निज़ाम के ख़िलाफ़ और इसीलिए भारत के विकास के ख़िलाफ़ साज़िश करने वालों के तौर पर पेश करता है।

पहला पत्र जहां नफ़रत से प्रेरित अपराधों के सारे आँकड़े विश्वसनीय स्रोतों से उठाता है (मसलन, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 में दलित उत्पीड़न की 840 घटनाएं हुईं और इसके लिए सज़ा पानेवालों के प्रतिशत में ज़बरदस्त गिरावट देखी गयी), वहीं दूसरा पत्र बेहिचक भाजपा-आरएसएस के झूठ-विनिर्माण-संयंत्रों से उत्पादित-प्रसारित आरोपों का सहारा लेता है। कैराना से हिन्दुओं का बड़े पैमाने पर पलायन, कश्मीरी पंडितों की समस्या पर देश के बुद्धिजीवियों की चुप्पी, देश के विश्वविद्यालयों में आतंकवाद के समर्थन में नारे—ये सब इसी संयंत्र में गढ़े गए किस्से हैं, यह बात साबित हो चुकी है।

जिन बुद्धिजीवियों-कलाकारों ने, केंद्र में कैसी भी सरकार हो, अपनी आलोचनात्मक चेतना का कभी विसर्जन नहीं किया, उनके विरोध को संकीर्ण राजनीति से प्रेरित बताना, असल में, खुद एक घटिया दलगत पक्षधरता का उदाहरण है। बुद्धिजीवियों-कलाकारों की अपील जनता में असर करती है, क्योंकि लोगों के दिलों में उनके लिए इज़्ज़त और भरोसा है, यह बात भाजपा-आरएसएस को पता है। साथ ही, उन्हें यह भी पता है कि इनकी शिकायतों के विरोध में दो-चार नामचीन लोगों के साथ औसत और गुमनाम लोगों की फेहरिस्त जोड़कर, ख़बरिया माध्यमों को पढ़ने-सुनने-देखने वाले लोगों को एक हद तक बरगलाया जा सकता है और उनके बीच ईमानदार बुद्धिजीवियों-कलाकारों की बनी हुई विश्वसनीयता को दरकाया जा सकता है। प्रतिरोध का विरोध करने वाली एक टीम बनाने के पीछे यही मंशा है।

बुद्धिजीवी और कलाकार की खाल ओढ़े इन हत्या-सत्ता-समर्थकों की हम भर्त्सना करते हैं और इनसे उम्मीद करते हैं कि भविष्य में कोई बयान जारी करते हुए ये ओढ़ी हुए खाल की भी थोड़ी परवाह करेंगे। बुद्धिजीवी और कलाकार होने के दावेदार के रूप में ही नहीं, बतौर नागरिक भी, इन्हें अल्पसंख्यकों और दलितों की हत्याओं का बचाव करते हुए इस तरह का बयान जारी नहीं करना चाहिए।

जनवादी लेखक संघ (मुरली मनोहर प्रसाद सिंह)
प्रगतिशील लेखक संघ (राजेंद्र राजन)
जन संस्कृति मंच (मनोज कुमार सिंह)
दलित लेखक संघ (हीरा लाल राजस्थानी)

जाहिर है देश में विभिन्न समुदायों के बीच खड़ी होती नफरत की दीवारों और उसके बरअक्स बनाए जा रहे राजनीति मुहावरों के तीखे संघर्ष में आने वाले दिनों बहस, आरोप—प्रत्यारोप तेज होंगे। फिलहाल इस पत्र पर भाजपा समर्थक बुद्धिजीवियों की ओर से कोई जवाब नहीं आया है। द क्राइम इन्फो ने उनसे संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि अभी उन्होंने पत्र देखा नहीं है, पत्र को पढ़ने के बाद आगे की जवाबी कार्रवाई तय की जाएगी।

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