Editor Choice: यदि आप पुलिस विभाग से जुड़े हैं और पिछले तीन दिनों से देशभर के पुलिस थानों में जो आप होता देख रहे हैं उसके पीछे का सच जानना चाहते हैं तो यह विश्लेषण पूरा और अंत तक अवश्य पढ़ें, यदि विचारों से आप सहमत नहीं हैं तो भी कमेंट में जाकर अपने निजी वक्तव्य भी दे सकते हैं
केशव राज पांडे, भोपाल। भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य विधेयक 2023 पूरे देशभर में 30 जून और 01 जुलाई की मध्य रात्रि से लागू हो गया। इस नए कानूनों को लेकर पिछले तीन दिनों से जश्न जैसा माहौल एमपी के हर थाने में मनाया जा रहा है। पहले यह कानून क्रमश: भारतीय दंड संहिता, भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के नाम से जाने जाते थे। भारतीय दंड संहिता 1860 से लागू थी। जबकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 से चली आ रही थी। वहीं भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 से चली आ रही है। पहले के कानून शार्टकट में आईपीसी, सीआरपीसी और आईआईए के नाम से प्रचलित थे। इन तीन कानूनों में जनता से जुड़ा सीधा कानून भारतीय दंड संहिता जो अब बदलकर भारतीय न्याय संहिता हो गई है। यानि आईपीसी से बीएनएस (BNS) हो गया। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 यानि भारतीय न्याय संहिता 2023 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 यानि भारतीय साक्ष्य विधेयक 2023 में पुलिस और न्यायिक प्रणाली को ज्यादा काम करना होता है। इसमें पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों के कार्य करने के धाराओं में विवरण होते हैं। इन्हीं के अध्ययन पर न्यायालय प्रकरणों में कोई निर्णय लेने की अवस्था में आता है। हम इन तीनों कानूनों को लेकर क्या सोचते हैं या कितनी गहराई में जानते हैं उन बातों को छोड़कर मुख्य बिंदु में आना नहीं चाहते। कुछ ऐसे ही मैदानी विषमताओं को लेकर व्यवहारिक बारीकियों से सुधि पाठकों और जानकारों तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं।
जनसंपर्क विभाग का पैमाना सकारात्मक पत्रकारिता नहीं टीआरपी
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव ने पुलिस और विधि विभाग के अफसरों से अपील की थी कि इस नए कानूनों को लेकर जनता तक पहुंचाने में पहल की जाए। जिसके बाद पूरे मध्यप्रदेश के हर समाचार पत्रों में थानों का जगह—जगह कवरेज दिया गया है। जिस थाने के प्रभारी से जिस मीडिया हाउस की ज्यादा बनती हैं उसने स्थान दे दिया। इन सबके बीच भोपाल देहात कई अखबारों में स्थान पाने से चूक गया। हमने हकीकत पता लगाना चाहा तो मालूम हुआ कि समाचार इसी शर्त पर जारी होता है जब मीडिया हाउस का नियुक्ति पत्र या आई कार्ड दिया जाएगा। हालांकि एमपी का जनसंपर्क विभाग मीडिया हाउस की मान्यता में जो पैमाना लिए है वह ‘पट्ठा कल्चर’ से ज्यादा ओतप्रोत है। यह विभाग नेपोटिज्म यानि भाई—भतीजावाद से ज्यादा ग्रसित हैं। तथ्यात्मक, वास्तविक और मैदानी खबरों को दिखाने वाला मीडिया अथवा न्यूज वेबसाइट जनसंपर्क विभाग को ‘बुरे सपने’ लगते हैंं। यदि ऐसा नहीं होता तो वेबसाइट पर हीट या अखबारों के प्रसार संख्या के आधार पर विज्ञापन दर या मान्यता देने से संबंधित नियम नहीं होते। अब यदि कोई न्यूज वेबसाइट उत्तेजनापूर्ण चित्रों और संवाद के साथ हीट सर्वाधिक पाती है तो उसे सबसे ज्यादा विज्ञापन मिल सकता है। सरकार की मंशा नीतियों के अनुकूल होती तो विज्ञापन पाने वाले या मान्यता प्राप्त पत्रकारों का एक बार भौतिक सत्यापन करा ले। सिस्टम का ‘कड़वा सच’ सामने आ जाएगा। उस जनसंपर्क विभाग ने भारत के तीन कानूनों को अमल में लाने से न जाने क्यों दूरी बना रखी है।
तारीख पर तारीख पुरानी बात सिस्टम के बाद नया सिस्टम न्यू ट्रेंड
सरकारें बहुत ज्यादा पॉवरफूल होती हैं। वह चाह ले तो सबकुछ कर सकती हैं। यह बात हम यूं ही नहीं कह रहे। दरअसल, इसी भोपाल शहर में डेढ़ दशक में तीन तरह के बड़े ऐतिहासिक बदलाव कर दिए गए। भोपाल में शुरुआत एसएसपी प्रणाली से हुई थी। यानि एसपी सिस्टम खत्म करके डीआईजी के अधीन दो एसपी उत्तर—दक्षिण भोपाल बना दिए गए थे। फिर कुछ सालों बाद इसे बदला गया और डीआईजी प्रणाली बोलकर कुछ अधिकार पुलिस अधीक्षकों को वापस लौटाए गए। इस संशोधन की समीक्षा होती उससे पहले पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली लागू कर दी गई। शहर को चार जोन में बांटकर आठ डीसीपी बैठा दिए गए। इस प्रणाली में बाउंड ओवर का काम बहुत ज्यादा चल रहा है। इसी बाउंड ओवर की दो कड़वी सच्चाई से आपको रुबरू कराते हैं। गांधी नगर थाना पुलिस ने पिछले दिनों पिता—पुत्र को प्रतिबंधात्मक कार्रवाई करके जेल भेज दिया। जबकि गुनाह पिता—पुत्र की मासूम बच्ची से हुआ था। उसने पत्थर उठाकर पड़ोसी के बच्चे को मार दिया था। जिसकी बच्ची को पत्थर लगा उसके पिता होमगार्ड में तैनात हैं। मुकदमा दर्ज नहीं हुआ लेकिन, प्रतिबंधात्मक धाराओं में जेल भेज दिया गया। इसी तरह गोविंदपुरा थाना पुलिस ने जिसे प्रतिबंधात्मक कार्रवाई करके जेल भेजा उसके बाहर आने के बाद संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। इसी तरह एक अन्य मामला भी गोविंदपुरा थाने से ही जुड़ा हुआ है। यहां के थाना प्रभारी एक सरकारी स्कूल में बच्चों से बातचीत करने पहुंचे थे। वहां उन्होंने विभाग की उपलब्धियां गिनाते हुए काफी अच्छी—अच्छी बातें बताई। फिर उन्होंने बच्चों से पूछ लिया कि उन्हें पुलिस के साथ कैसे अनुभव मिले वह बता सकते हैं। एक छात्रा ने पूछा कि उसके पिता छह साल से गायब हैं अभी तक थाना पुलिस कुछ पता नहीं लगा सकी। अब थाने जाते हैं तो सिर्फ दुत्कार मिलती है। यह सुनने के बाद थाना प्रभारी को काफी शर्मिंदगी महसूस हुई। हमने इन तीनों प्रकरणों की बातें इसलिए की है क्योंकि इनमें से सिर्फ एक मामले की रिपोर्टिंग अखबारों में हुई। वह भी मरने वाले व्यक्ति की। बाकी दो मामलों की रिपोर्टिंग नहीं हो सकी। मीडिया भी सामाजिक महत्व के मुद्दों से दूर होकर पूंजीपतियों और पॉवरफूल लोगों के पास सुरक्षा घेरा बनाए हुए हैं।
पुलिस विभाग में ‘देख लेना’ व्यवस्था चरम पर पहुंची
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल शहर कभी पुलिसिंग के मामले में आदर्श हुआ करती थी। नवाचार बहुत ज्यादा होते थे और वह जनता के हित में किए जाते थे। उसमें बीट सिस्टम आज भी बहुत ज्यादा प्रभावी है। जिसका इस्तेमाल अब बीट सिस्टम में तैनात अफसर जनता की बजाय अपने निजी के लिए ज्यादा कर रहे हैं। उन्हें पता होता है कि मेरे बीट में सर्वाधिक पॉवरफूल या पूंजीपति कौन सा व्यक्ति हैं। वह भी मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के उस घेरे में होता है जहां मीडिया खड़ा होता है। ऐसा नहीं है कि नवाचार अब नहीं होता लेकिन पुलिस विभाग के भीतर चल रही एक परंपरा ‘देख लेना’ ने पूरे ढ़ांचे को तहस—नहस कर दिया। भोपाल शहर का एक छोला मंदिर थाना जो पहले कभी निशातपुरा पुलिस थाने की चौकी हुआ करती थी। इसका आज भी भवन नहीं बन सका। जबकि इस क्षेत्र में दो बार सरकार में मंत्री रहे विश्वास सारंग का क्षेत्र आता है। इसी तरह गौतम नगर थाना आज भी शेड में चल रहा है। लेकिन, वह एसपी, एसएसपी, डीआईजी के बाद पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली देख रहा है। पुलिस विभाग की खाकी ने खादी को साध रखा है। अब लोगों को पता चलने लगा है कि किस थाने में किस नेता की चलती है। वह थाने की बजाय नेता के दरबार में सीधी फरियाद लगाते हैं। जबकि पहले नेताओं के पास पुलिस थाने की तरफ से कार्रवाई नहीं करने पर शिकायतें पहुंचती थी। इन बातों से गिरता जनाधार किस व्यक्ति या संगठन का है इसकी चिंता करने की आवश्यकता हैं। वहीं नेताओं का पोस्टिंग पर चल रहा ‘देख लेना’ कल्चर मैदानी फोर्स को डिगा रहा है।
सरकार हो या सिस्टम वह सवाल पूछने वाले हर व्यक्ति को अपने से दूर करना चाहता हैं। उसे समाज की तरफ से हर बुरे दिन में धकेले जाने का पूरा प्रयास भी किया जाता है। लेकिन, मुद्दे को रंगीन पर्दो पर ढ़कने के बाद मार्केटिंग के बूते कोई भी योजना या बदलाव सार्थक नहीं हो सकता। भोपाल पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली में अत्याधिक मात्रा में बल का संकट है। लेकिन, वह पहाड़ बनकर सरकार से सवाल पूछे उसके सामने नई योजना की चादर लगा दो इसे मार्केटिंग कहते हैं। यह सिलसिला भोपाल शहर में दो दशक से चल रहा है। पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली में एक दर्जन आईपीएस अफसरों को कुर्सी मिल गई। उनके कार्यालय में काम करने वाले मिनिस्ट्रीयल स्टाफ आज भी तैनात नहीं किए गए। यह करना भी संभव नहीं है क्योंकि मिनिस्ट्रीयल स्टाफ की भर्ती का विज्ञापन ही दशक पहले निकला था। नतीजतन, थानों से बल निकाल—निकालकर अफसर अपना काम चला रहे हैं। भोपाल शहर महिला बल की कमी से काफी जूझ रहा है। यह जानते हुए डीजीपी का आदेश जिसमें महिला अपराधों में महिला अधिकारी होने की अनिवार्यता को पूरा करने के लिए एक नए कल्चर ने जन्म ले लिया है। यहां भी ‘देख लेना’ की तर्ज पर जाकर एफआईआर थानों में होने लगी है। सवाल पूछने वाले मीडिया को पुलिस के अधिकारी टीआरपी की आड़ में पीछे धकेलने का प्रयास करते हैं। वहीं ‘पट्ठा कल्चर’ अपनाने वालों से हाथ मिलाया जा रहा है। यह आलम केवल यहां नहीं है देश के संसद भवन में भी है। कोरोना काल में लगी कवरेज की रोक की अनिवार्यता को लेकर एडिटर्स गिल्ड ने लोकसभा स्पीकर ओम बिरला से पत्राचार भी किया है। जबकि कोरोना काल में जेल बंदियों की रिहाई वाले आदेश भी कई साल पहले शिथिल हो गए हैं। यानि साफ है कि सवाल पूछने वाला मीडिया को सरकार और सिस्टम आज भी ‘महामारी’ मानता है।
सीजेआई ने बहुत पहले कर दिया था प्रयास
यदि आपको लगता है कि केवल थानों में मुकदमे दर्ज होते हैं तो यह गलतफहमी है। विभागों के भी प्रकरण जैसे नगर निगम, पुलिस, जिला प्रशासन, बिजली विभाग समेत कई अन्य के भी मामले अदालतों की चौखट पर पहुंचते हैं। विभागों के प्रकरणों की भी रिपोर्टिंग करना आसान नहीं हैं। इन सभी बातों के चलते न्यायिक प्रणाली में काफी काम का बोझ है। ऐसी अवस्था में यह तीन कानूनों के बदलाव को समझना, उसका प्रशिक्षण लेना चुनौतियों से कम नहीं हैं। अदालतों के मुकदमों को लेकर सीजेआई डीवाय चंद्रचूड भी चिंतित थे। इसलिए उन्होंने अपने स्तर पर पहल की थी। हालांकि उनके प्रयासों को लेकर देशभर में बार काउंसिल और अधिवक्ता विरोध में आए थे। जिस कारण समय पर निपटाने वाले प्रकरण की शर्त अब सरकार की तरफ से अनिवार्य कर दी गई है। अब न्यायालय के सामने मौजूदा कानूनों के साथ—साथ पुराने प्रकरणों की गंभीरता को भी बनाए रखना और उसके निराकरण को लेकर कोई कार्ययोजना बनानी होगी। क्योंकि नए कानून के चलते न्यायिक प्रणाली पर उसके निपटान को ज्यादा प्राथमिकता में लिया जाएगा। मुख्य धारा का मीडिया इन विषयों को लेकर समाचार पत्रों में या टीवी बहस का विषय नहीं बना रहा। वह केवल एक पक्षीय और एक सूत्रीय कार्यक्रम पर चल रहा है। सिर्फ नए कानूनों की खूबी और वाहवाही पर बात कर रहा है। वह इन विषयों पर चर्चा नहीं करना चाहता जो थानों में लागू है। सात साल से अधिक सजा वाले अपराध के कानून का प्रस्ताव। इस कानून के चलते देशभर में उसके संशोधन की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार के काफी मामले सामने आने लगे थे। जिसकी जंग पुलिस विभाग में लग चुकी थी। जिसको साफ करने की आवश्यकता थी। ऐसे ही नैतिक और मौलिक मूल्यों की रिपोर्टिंग न होने के चलते मीडिया को कथित गोदी मीडिया की उपाधि से पुकारा जाने लगा है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कई बार मीडिया को निष्पक्ष और निर्भींक होकर तथ्यों के साथ आलोचना के अधिकार दे भी चुके हैं। लेकिन, स्व अनुशासनों में चलने वाले मीडिया हाउस में अब वह ‘साहस’ की कमी झलकने लगी है।