MP Journalism Ground Reality: सिस्टम में मीडिया की आजादी और उसकी स्वायत्ता हमेशा ही सरकारों को खटकती रही है
केशवराज पांडे
भोपाल। मध्य प्रदेश (MP Journalism Ground Reality) के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विश्व पत्रकारिता दिवस के अवसर पर घोषणा की। यह घोषणा से पहले एक प्रतिनिधि मंडल ने उनसे मुलाकात की थी। इसलिए घोषणा करनी थी यह साफ था। लेकिन, वह जिस रुप में सामने आई उससे कई सक्रिय पत्रकार आहत जरुर हुए। कुछ ने तो सोशल मीडिया पर नजरिया पेश करना भी शुरु कर दिया था। मुख्यमंत्री ने ऐलान किया था कि अधिमान्य प्राप्त पत्रकारों को सरकार कोविड फ्रंट लाइन वर्कर मानेगी। इसके अलावा वह पांच लाख रुपए की सहायता करेगी। अधिमान्य पत्रकारों में से कई ऐसे पत्रकार है जिन्होंने सरकार की ही योजना के तहत बीमा करा रखा है। अब सरकार के ऐलान से मुझे नहीं लगता कि उन्होंने कोई बड़ी घोषणा की हो। मध्य प्रदेश में सरकारें पिछले पंद्रह साल से पत्रकारिता के पेशे को हाशिए में पहुंचाने के हरसंभव प्रयास कर रही है।
डिजीटल नीतियां लागू ही नहीं हुई
मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में ही न्यूज वेबसाइट चलाने वाले कई पत्रकारों को जनसंपर्क विभाग के रास्ते फायदा पहुंचाया गया था। इस संबंध में विधानसभा में भी जवाब दिया गया था। जिसके बाद यह मामला हाईकोर्ट पहुंचा था। हाईकोर्ट से संख्ती के बाद कोई नीति बनती तब तक भाजपा की सरकार चली गई। नई सरकार कमलनाथ की बनी। इस सरकार ने भी डिजीटल नीति ही नहीं बनाई। वह इस विषय को टालती रही। जिस वक्त कमलनाथ की सरकार जा रही थी, उस महीने एक ड्राफ्ट (MP Journalism Ground Reality) तैयार किया था। वह ड्राफ्ट आज भी लटका हुआ है। मसलन साफ है कि सरकार नहीं चाहती कि वह डिजीटल पॉलिसी लागू करे। पॉलिसी प्रदेश सरकार के लिहाज से बेहतर थी। उसमें पत्रकारिता में प्रतियोगिता होती। जिससे सूचनाओं के साथ—साथ सरकार के लिए चुनौती बनती इसलिए उसको लटकाया गया।
रेवड़ी के कारण सक्रिय पत्रकारिता पंगु
मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा की पहल पर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि को विस्तार मिला था। इसकी स्थापना 1990 में हुई थी। यहां पहले डायरेक्टर हुआ करते थे। पहले यह कुर्सी ब्यूरोक्रेट के पास थी। मसलन भागीरथ प्रसाद, शरद चंद्र ब्यौहार आदि। इसके बाद यहां कुलपति व्यवस्था हुई तो सरकार के नजदीक रहने वाले पत्रकारों को स्थान मिला। इस भवन के अलावा पत्रकारिता के उन्नयन के प्रयास सरकार ने कभी नहीं किए। पत्रकारों के वेतनमान और उनकी सुविधाओं और अधिकारों से जुड़े किसी भी विषय पर कोई प्रयोग ही नहीं हुए। बस अपने खास पत्रकारों को चिन्हित करके उन्हें उपकृत किया जाता रहा है। यह केवल एक सरकार की बात नहीं है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के पूर्व कुलपति जगदीश उपासने और दीपक तिवारी उसके सटीक उदाहरण भी है।
अधिमान्य पत्रकारों के कार्ड पर संकट
मध्य प्रदेश से सर्वाधिक संख्या में अखबार, मैग्जीन और साप्ताहिक—पाक्षिक समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं। आलम यह है कि केंद्र में आरएनआई एमपी से जाने वाले आवेदनों पर विशेष निगरानी रखने लगी है। कई तरह के तकनीकी पेंच लगाकर नए आवेदनों को लटकाया जाता है। मेरे पास ऐसे दो आवेदन मौजूद भी है। आरएनआई ने यह बोलकर आवेदन लौटाया कि उसमें क्राइम शब्द है। इसलिए पंजीयन नहीं होगा। मतलब अपराध बंद हो या न हो पर यह शब्द से जुड़े किसी विषय को पंजीकृत ही नहीं किया जाएगा। इन्हीं समाचार पत्र—मैग्जीन के नाम पर जनसंपर्क संचालनालय से अधिमान्यता के कार्ड जारी किए जाते हैं। हालांकि सक्रिय पत्रकारों के सामने कई ऐसे कार्ड धारी आज भी पानी ही भरते हैं।
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सरकार को सच सुनना पसंद नहीं
पत्रकारिता (MP Journalism Ground Reality) को कई लोग आज व्यापार के नजरिए से देखने लगे हैं। यह एक नजरिया हो सकता है। यह पेशा आज भी कई लोगों के लिए मिशन ही है। मैदानी बातचीत को लाने पर सरकार और सिस्टम नाराज ही होता है। इसलिए कई ऐसे पत्रकार भी है जो जनता के बीच ही सक्रिय रहना चाहते हैं। उन्हें सत्ता और उनके सिपहसलारों के आस—पास रहने में रुचि नहीं होती। मेरे सामने कई ऐसे उदाहरण है जिन्होंने कभी भी अधिमान्य पत्रकार होने के कार्ड या मकान लेने के लिए रुचि ही नहीं दिखाई। हालांकि ऐसे आदर्शवादी पत्रकारों की संख्या विरल ही है।
डिजीटल मीडिया मांग पैदा कर सकता है
सरकार डिजीटल पॉलिसी को बेहद हल्के में ले रही है। लेकिन, इस पॉलिसी में गंभीरता से विचार किया जाए तो यह सेक्टर लाखों की संख्या में रोजगार का सृजन कर सकता है। सही तरीके से डिजीटल मीडिया चलाने के लिए कई तकनीकी साधनों के साथ—साथ इंटरनेट की भी डिमांड होती है। यह डिमांड ही सरकार के लिए कई तरह की रियायतें दे सकती है। लेकिन, सरकारें कभी नहीं चाहती कि उसके सामने मांग पैदा करने वाली संस्था खड़ी हो। सिस्टम और सरकार हमेशा से मांगने वालों की कतार चाहती है। ताकि सरकार चलाने वाली पाटियों का रुतबा बने रहे। इसके अलावा सरकार एक नया विकल्प भी खड़े नहीं होने देना चाहती। क्योंकि उसके सामने फिर उसको नियंत्रित करने की चुनौती खड़ी हो जाएगी।
मैकेनिज्म की आवश्यकता
मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के दूसरे विकल्पों में बेहतरीन साधन डिजीटल मीडिया बन सकता है। इसमें प्रयोग करके सरकार आदर्श बन सकती है। मध्य प्रदेश में पहली बार डिजीटल मीडिया के रुप में वेबदुनिया डॉट कॉम सामने आया था। लेकिन, सरकारें न्यूज वेबसाइट को सोशल मीडिया (MP Journalism Ground Reality) के नजरिए से देखती है। दरअसल, उसके पास इस सेक्टर के बेहतरीन मैकेनिज्म को जानने वाले और उसको चलाने वाले जानकारों की कमी है। इसलिए डिजीटल पॉलिसी के ड्राफ्ट में हिट का फॉर्मूला रखा गया है। मतलब जिसके पास ज्यादा हिट उसको सर्वाधिक विज्ञापन। जबकि होना यह चाहिए था कि किस न्यूज वेबसाइट पर बेहतरीन कंटेट और जनहितेषी विषय हैं। सरकारें ऐसा चाहती ही नहीं है। इसलिए वह न्यूज वेबसाइट को मंनोरंजन प्रधान बनाने में तुली है।
खास के कारण कई हक से चूके
मध्य प्रदेश में न्यूज वेबसाइट के नाम पर हुए घोटाले के कारण कई संकट पैदा हो गए। सरकार के इस फैसले की वजह से न्यूज वेबसाइट की सत्यता पर संकट खड़ा हुआ। दूसरा नुकसान यह हुआ कि वास्तविक काम करने वाले ऐसे पत्रकारों को उन्हीं की बिरादरी में मान लिया गया। जबकि सरकार को पता यह लगाना चाहिए था कि घोटाला आखिर किसने किया। कहीं अफसरों और नेताओं की बंदरबाट तो नहीं थी। हालांकि सरकार उस बात पर जाना ही नहीं चाहती। इसलिए डर की वजह से आज भी ईओडब्ल्यू में यह मामला ठंडे बस्ते में डाला हुआ है। ऐसा करने से सरकार के दो हित पूरे हो रहे हैं। लेकिन, इस वजह से मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के स्वर्णिम अवसर को हासिल करने की बजाय उन्हें पीछे धकेला जा रहा है।
(यह लेखक के अपने निजी विचार हैं)