अदालत में तकनीकी सबूतों को नहीं होते कारगर, भौतिक साक्ष्यों के अभाव में बच रहे हैं अपराधी
केस-1
शाहजहांनाबाद इलाके से सितम्बर, 2018 में राकेश का नौ महीने का बच्चा शिवा गायब हो गया। आरोपी बच्चे को जन्माष्टमी में कृष्ण बनाने का झांसा देकर उसे ले भागे थे। पिता मजदूर था जो वापस खंडवा चला गया। आरोपी बाइक में सवार थे जो राजगढ़ तक कैमरे में कैद हुए थे। पुलिस ने काफी तलाशा पर कोई सुराग आज तक नहीं मिल सका।
केस-2
कमला नगर थाना क्षेत्र के वैशाली नगर इलाके में कार सवार ने एक्टिवा से जा रहे दंपत्ति माया और उनके पति हूताराम को टक्कर मार दी। दोनों का हजेला अस्पताल में इलाज चला ओर करीब डेढ़ लाख रुपए खर्च हो गए। घटना दो साल पहले हुई थी। जहां दुर्घटना हुई उसके नजदीक कैमरा लगा था। लेकिन, दुर्घटना से पहले ही वह अचानक बंद हो गया।
केस-3
अवधपुरी इलाके की तीन कॉलोनियों में 2018 में एक साथ पांच घरों में चोरी की वारदातें हुई। वारदात करने वाले कैमरे में भी कैद हुए। आज तक इन मकान मालिकों को अपना चोरी गया सामान नहीं मिल पाया। वहीं पुलिस भी चोरों का पता नहीं लगा पाई।
केस-4
हबीबगंज इलाके में गिरधर ज्वैलर्स की दुकान में ग्राहक बनकर पहुंचे चोर कीमती सामान चोरी कर ले गए थे। दुकान मालिक मदन मोहन मंगल ने फुटेज भी सौंपे थे। इसके अलावा जहां वारदात हुई थी उसके नजदीक भी पुलिस के सीसीटीवी कैमरे लगे थे। यह मामला आज भी अनसुलझा है।
केस-5
टीटी नगर में शराब कारोबारी के कलेक्शन एजेंट अर्जुन सिंह से 12 लाख रुपए लूट की वारदात हुई थी। इस घटना में भी पुलिस को सीसीटीवी फुटेज मिले थे। यह वारदात अगस्त, 2018 में हुई थी। जांच में क्राइम ब्रांच भी जुटी पर आज तक इस मामले में नतीजा सिफर ही हैं।
मुखबिर तंत्र समाप्त हो गया
मध्यप्रदेश में कानून-व्यवस्था पर शिकंजा कसने के लिए तत्कालीन भाजपा सरकार ने कई तरह की स्कीमें लॉच की। इसमें डायल-100 के अलावा सीसीटीवी कैमरे भी थे। इसमें डायल-100 से रिस्पांस नागरिकों को मिला। लेकिन, सीसीटीवी कैमरों की योजना फैल होती नजर आ रही है। शहर में होने वाले गंभीर अपराधों में यह कैमरे काम नहीं आ पा रहे। नतीजा कैमरों के कारण पहले से ही पिछड़ रहा पुलिस का मुखबिर तंत्र लगभग खत्म होने की कगार पर आ गया है।
यह है कैमरों की स्थिति
राजधानी में तीन अलग-अलग चरणों में भोपाल पुलिस को हाईटेक बनाने के लिए कैमरे लगाए गए थे। इन तीनों योजनाओं से जुड़े कैमरों के कंट्रोल रूम भी बनाए गए। दावा किया गया था कि इन कैमरों की मदद से क्राइम कंट्रोल होगा वहीं क्राइम करने वाला किसी भी जगह होगा तो वह निगरानी में रहेगा। लेकिन, मौजूदा हालात इसके उलट हैं। यहां आम अपराध तो दूर गंभीर अपराधों में भी कोई सुराग इन कैमरों की मदद से नहीं मिल पाता है। जानकारी के अनुसार इस वक्त शहर में 1125 कैमरे लगे हुए हैं। इसमें पीटीजेड कैमरों की संख्या 244, फिक्स कैमरों की संख्या 867 और एएनपीआर कैमरों की संख्या 14 हैं। इन सभी के लिए लगभग 30 स्क्रीन डिस्पले लगे हैं। इसमें से दो चरणों में टेक्रोसिस कंपनी ने कैमरे लगाए थे। जबकि तीसरे चरण में हनीवेल कंपनी ने कैमरे लगाए। इसकी नोडल एजेंसी रेडियो मुख्यालय को बनाया गया। इसके अलावा ट्रैफिक पुलिस के ओवरस्पीड कैमरे समेत अन्य जगहों पर नए कैमरे लगाने की कवायद भी चल रही है।
प्रधानमंत्री ने शुरू किया प्रयास
भारत दक्षिण एशिया में बहुत तेजी से विकसित हो रहा देश हैं। भारत में पुलिस कार्यप्रणाली पर अक्सर सवाल खड़े होते रहे हैं। इसके ढ़ाचे में बदलाव को लेकर भी चर्चाएं चली। लेकिन, आजादी के बाद कोई बदलाव नहीं हुआ। आजादी के पहले अंग्रेजों ने महानगरीय शहरों में पुलिस कमिश्रर प्रणाली लागू किया। इस प्रणाली को जरूर कुछ शहरों में आजादी के बाद लागू किया गया। लेकिन, यह व्यवस्था हर जगह लागू नहीं हैं। इस व्यवस्था को लेकर भी दो मत चलते हैं। पुलिस विभाग में ही स्ट्रक्चर में बदलाव की आवश्यकता महसूस होने लगी है। हालांकि यह बड़े पैमाने पर दूर की कौड़ी है। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसकी शुरूआत कर दी है। यह उसका एक हिस्सा कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री ने कैडर व्यवस्था को बदलकर जोन बनाया है। पहले राज्यों के अनुसार कैडर आवंटन होता था। लेकिन नई व्यवस्था में अब यह जोन के अनुसार हो गया है।
लंदन पैटर्न की आवश्यकता
भारत में अंग्रेजों का कानून और पद सदियों पुराने हैं। इसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता हैं। इसके लिए लंदन पुलिस की तर्ज पर अध्ययन की आवश्यकता हैं। भारत में अफसरों को दो वर्गों में बांटा गया है। एक वर्ग केन्द्र स्तर का है तो दूसरा राज्य स्तर का। इन्हें केन्द्रीय संवर्ग और राज्य संवर्ग नाम से पुकारा जाता है। राज्य संवर्ग के अधीन ही मैदानी कर्मचारियों की नियुक्ति होती है। इसमें एएसपी से लेकर सिपाही तक शामिल हैं। लेकिन, लंदन में यह व्यवस्था नहीं हैं। वहां पुलिस प्रमुख की भर्ती आरक्षक के पद से ही होती है। सेवा काल के दौरान कुछ तय मापदंड है उसके आधार पर पदोन्नति और क्रमोन्नति दी जाती है। इसमें सामाजिक सरोकार, क्राइम डिटेक्शन, इनोवेशन समेत कई बिंदु शामिल है। इसलिए लंदन डीजीपी हर आम और खास की व्यवस्थाओं से वाकिफ होते हुए वैसे फैसले लेता है।
पेशेवर अपराधी तोड़ निकाल लेते हैं
इस मामले में पूर्व डीजी अरूण गुर्टू का भी मानना है कि सीसीटीवी कैमरों ने पुलिस की वर्किंग में बहुत ज्यादा असर डाल दिया है। इन कैमरों पर निर्भरता के चलते पुलिस वर्किंग का रिस्पांस टाइम घटने लगा है। अदालत भी फुटेज को मान्यता नहीं देता है। इसलिए फोरेंसिक सबूत ही पुलिस के काम आते हैं। अरूण गुर्टू का कहना है कि पेशेवर अपराधी तय करके जब वारदात करता है तो वह बकायदा रैकी करता है। इसमें वह यह देख लेता है कहां-कहां कैमरे लगे हैं अथवा नहीं। इस कारण पुलिस के सामने एकमात्र विकल्प मुखबिर तंत्र और भौतिक सबूत ही काम में आता है।