देश की एजेंसियों के सामने 7 दशक के भीतर अब आई वास्तविक परीक्षा, डेटा की आड़ में कंपनियों को दिख रहा मुनाफा, देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर कंपनियों को नहीं हैं परवाह
केशवराज पांडे, भोपाल
आजादी के बाद का भारत। मेट्रो कल्चर (Metro Culture) अपनाएं और बेहद मॉडर्न भारत। जहां गरीबी, बेरोजगारी, रिसर्च और अविष्कार की बातें बेमानी हो गई है। 70 साल बाद आधुनिक हुआ यह भारत ऐसे ही नहीं बना। इसमें कई दलों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। सारी रणनीतियों पर सरकारें खरी उतरी। लेकिन, अब इन्हीं सरकार की छत्रछाया में काम करने वाली देश की विभिन्न सुरक्षा एजेंसियां, एक बहुत बड़ी चुनौतियों से घिरी है। वह इन चुनौतियों को जगजाहिर भी नहीं करना चाहती। अगर ऐसा किया तो व्यवस्था से भरोसा टूट जाएगा। क्योंकि हर कोई साजिश नहीं करता। लेकिन, साजिश करने वालों के निशाने पर वह वर्ग होता है जो अपने आस—पास चल रही गतिविधियों पर बारीकी से निगरानी नहीं रखता। थोड़ा विषय गंभीर है इसलिए पूरा पढ़ना मैं समझता हूं बहुत जरूरी होगा। है। इसलिए जितना वक्त इस समाचार के साथ देंगे तो विषय का पूरा सार समझ सकेंगे। आखिर देश और दुनिया में चल क्या रहा हैं। यह हो सकता है आपको आखिर में समझ में आए।
बात की शुरूआत करते हैं अपने मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) से। यहां करीब नौ महीने पहले मध्यप्रदेश में नई सरकार का गठन हुआ। यहां मुख्यमंत्री कमलनाथ (Chief Minister Kamalnath) के नेतृत्व में सरकार का गठन किया गया। कांग्रेस पार्टी ने अभियान के दौरान किसान (Madhya Pradesh Farmer) पर ही फोकस रखा था। इसमें किसान कर्जमाफी (Loan Wavier) मुख्य एजेंडा था। लेकिन, आप एक महीने से हनी ट्रैप कांड (MP Honey Trap Csae) सुन रहे हैं। लोगों को लगता था कि इसमें जरुर कोई बड़ा नाम सामने आएगा।
इस अटकलों के बीच वह बात दब गई जो लोगों के सामने आना थी। पूरे भारत में शहर और गांव पानी में जलमग्न थे। फसलों का कितना नुकसान हुआ यह पता लगाया जाना था। इस बीच प्रदेश में पटवारी हड़ताल (Patwari Strike) पर चले गए। भारतीय किसान यूनियन (Bhartiya Kisan Union) के प्रदेश महामंत्री अनिल यादव (Anil Yadav) ने बताया कि सरकार राजनीति से प्रेरित होकर किसानों के फैसले ले रही है। किसान यूनियनों को यह भी लगता है कि पटवारी की हड़ताल मुद्दों से ध्यान भटकाने और किसानों के यह हड़ताल तब हुई जब किसानों को मुआवजा वितरण किया जाना था। इससे साफ है कि किसानों को पैसा न देना पड़े उसको प्रभावित करने के लिए यह हड़ताल प्रायोजित की गई थी। यादव का दावा है कि सरकार 25 जिलों को बाढ़ से प्रभावित मान रही है। जबकि हमारे पास 35 से 40 जिलों की सूचनाएं जहां फसल प्रभावित हुई उसकी मिल रही है। यादव का यह भी आरोप है कि झाबुआ के उपचुनाव को देखते हुए उससे सटे जिलों पर फोकस करके किसानों के कर्ज माफ किए गए।
बिहार और हरियाणा में पानी
अब आप सोचिए कौन सी पार्टी किसान या खेती की जमीन को लेकर मंच पर या सार्वजनिक मंच पर खड़े होकर बोल रही हैं। जबकि इस हिन्दुस्तान की आधे से ज्यादा आबादी ग्रामीण अंचलों में ही रहती हैं। कितने किसानों के घर की कहानी सोशल मीडिया में आई। आप नहीं बता सकते। क्योंकि आप तक यह पहुंचाई ही नहीं गई। जिन्हें पहुंचाना है उनके व्यवसायिक हित है। लेकिन, आपको यह जरूर मालूम होगा कि भारत पाकिस्तान को कितना पानी पहुंचाता है? यदि यह पानी पाकिस्तान न पहुंचे तो वहां पर क्या होगा? आखिर पानी की ही बात, क्यों हुई और कहां हुई। यह जानकारी हम आपको देते हैं। यह बात केन्द्रीय मंत्री नितिन गड़करी ने एक राजनीतिक रैली में की थी। वे महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव को लेकर प्रचार के दौरान सभा को संबोधित कर रहे थे। यह पानी पंजाब और हरियाणा के किसानों को प्रभावित करने वाला था। मतलब साफ था कि इस बयान से दो काम एक साथ हो रहे थे। पहला तो शहरी वोटरों को पाकिस्तान के खिलाफ बयान देकर वाहवाही लूटने और दूसरा किसानों को खुश करने का दावा गडकरी कर रहे थे।
लेकिन, इन सबके बीच एक खबर पर कोई प्रतिक्रिया कहीं से नहीं आई। यह खबर है बिहार में आई बाढ़ को लेकर। यहां केन्द्र में समर्थन दे रही नीतिश कुमार (Chief Minister Nitish Kumar) की सरकार हैं। बिहार में बाढ़ आई तो नीतीश सरकार पर एक वर्ग ठीकरा फोड़ता रहा। बात को बेहतरीन तरीके से मैनेज भी किया। लेकिन, यह बात नेपाल (Nepal) में मैनेज नहीं हो पाई। वहां की स्थानीय मीडिया जैसे नागरिक न्यूज समेत कई समाचार संस्थानों ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि नेपाली नागरिकों ने कोसी नदी में बने बांध के पानी को दूसरे रास्तों से भारत में निकाल दिया। इससे पहले नेपाल सरकार ने भारत से काफी चर्चा भी की थी। लेकिन, कोसी नदी में बने बांध की चाबी भारत के पास थी। यह चाबी भारत देने को तैयार नहीं हुआ तो मामला जनता ने अपने हिसाब से सुलझा लिया। नतीजा यह हुआ कि नेपाल की जनता ने अपनी समस्या भारत की जनता की तरफ बहा दी।
ऐसा नहीं है कि वास्तविक समाचार देने पर केवल भारत के मीडिया (Indian Media) को दबाया जाता है। यह समस्या हर मुल्क में बनी हुई हैं। भारत में वैकल्पिक मीडिया ने जरूर इस कारण से अपनी पैठ बना ली हैं। जिसे फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने भी कबूला। दरअसल, भारत समेत दुनिया में चार स्तंभ कहे जाते हैं। जिसमें मीडिया को चौथा स्तंभ कहा जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में जुकरबर्ग ने एक कार्यक्रम में यह कहा है कि फेसबुक अब पांचवा स्तंभ हो चुका हैं। यह बहुत हद तक सच भी हैं क्योंकि कोई भी विषय को बताना हो या फिर फैलाना हो तो वह बहुत आसानी से इसके माध्यम से हो जाता है। यह सच भी है कि जो घटना जिस वक्त होती है वह फेसबुक के माध्यम से सारी जगह फैल जाती है। हालांकि इसके वैधानिक तथ्य को अभी भारत में स्वीकारा नहीं जा सका हैं। इसका ही फायदा हर मुल्क में बैठे कट्टरपंथी जिन्हें समाज या फिर कहे कि विजन के कोई मायने नहीं होते हैं उसे जानबुझकर ट्रोल करते हैं। ऐसे कई वीडियो उत्तर प्रदेश में हुई कमलेश तिवारी हत्याकांड को लेकर बांटे जा रहे हैं। यह वीडियों एक लाख से अधिक दर्शक बंटोर ले रहे हैं। यह वह दर्शक है जिसको यह नहीं पता होता है कि वह किस तरह से इस्तेमाल हो रहा है। इससे फेसबुक को भी कोई मायने नहीं होता। क्योंकि फेसबुक उस कंटेट की मदद से उस व्यक्ति तक पहुंच जाता है! जिसके पास पहुंचने में उसे करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते। इसके बाद उस व्यक्ति को सोशल मीडिया अपने मोहजाल में फांसता है। उसके आस—पास वही चीजें परोसे जाने लगती है, जो उसे पसंद हैं या फिर ज्यादा देखता हो। वह कंटेट आपत्तिजनक, भड़काउ भी हो सकता हैं। सोशल मीडिया चलाने वाली कंपनियां अपना व्यापार देखती हैं तो पार्टियां अपनी आइडियोलॉजी को कैंपेन मानकर उसे ट्रोल कराती हैं। इसका Stunt का बकायदा भुगतान भी किया जाता है।
यह उस वक्त ज्यादा होता है जब चुनाव के एक वर्ष रह गए हो। हालांकि चुनाव आयोग (India Election Commission) इन रणनीतियों को भांप चुका है। इसलिए उसने अपने आवेदन में प्रत्येक प्रत्याशी को सोशल मीडिया से संबंधित जानकारी पहले ही देने की अनिवार्यता कर दी हैं। पांचवे स्तंभ के सामने अपने वजूद को बनाए रखने की चुनौती हैं तो उधर चौथा स्तंभ वह किसी भी देश का हो वह जूझ रहा है। दरअसल, पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर बहस चल रही हैं। इन बहस को चौथा स्तंभ अक्सर हवा देता रहा है। इसलिए दुनिया कि किसी भी देश की सरकारें नहीं चाहती कि ऐसा कोई स्तंभ उनके आस—पास रहे। अमेरिका, चीन या फिर आस्ट्रेलिया, सभी जगह एक ही तकनीक पर कार्य किया जाता है। ताजा मामला आस्ट्रेलिया से सामने आया हैं। यहां की न्यूज कार्प, एबीसी, एसबीएस, द गार्जियन समेत नौ मीडिया संस्थानों ने 21 October सोमवार को अखबार का प्रकाशन किया। लेकिन, उसमें शीर्षक और कंटेट नहीं था। यह सरकार के खिलाफ चलाया गया अभियान है, जिसका नाम राइट टू नो (Right To Know) दिया गया है। जिसका मतलब है कि “आपको जानने का अधिकार” हैं। इस बात को लेकर आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉर्ट मॉरिसन (Prime Minister Scott Morison) विपक्ष के निशाने पर आ गए। यह मामला पूरे विश्व की मीडिया बिरादरी ने अपने—अपने स्तर पर उठाया हैं।
हैरानी की बात है कि आज 21 अक्टूबर हैं। देश में परंपरा रही है कि इस दिन पुलिस स्मृति दिवस (Indian Police Martyr Day) के रूप में इस दिन को याद किया जाता है। इस दिन पर दुनिया भर के सोशल प्लेटफार्म (Social Platform) पर भारत—पाकिस्तान वॉर, मुंबई—हरियाणा चुनाव जैसे विषय ही दिखे। फिर एक विषय अन्य भी है जिसमें लोगों ने बहुत ज्यादा रूचि दिखाई। यह काफी खतरनाक संदेश है भारत देश के लिए। यह संदेश उत्तर प्रदेश में हुई कमलेश तिवारी हत्याकांड को लेकर हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस (UP Police) आरोपियों को गिरफ्तार कर चुकी है। यह वही पुलिस है जिसे कुछ साल पहले ही ठांय—ठांय वाले प्रदेश की पुलिस कहकर चिढ़ाया जा रहा था। उसने विदेश में बैठकर रची गई साजिश का पर्दाफाश किया। इस हत्याकांड को लेकर ऐसे भड़काउ भाषण पोस्ट किए जा रहे हैं। जिसे यहां बताकर आग में घी डालने जैसा ही काम होगा। यह किसी भी समाज या देश हित में नहीं हैं। देश की आजादी के 70 बसंत देख चुके सिस्टम के सामने अब ऐसे लोग चुनौती बन रहे हैं। दरअसल, यह हथियारों के साथ दिखते नहीं हैं। लेकिन, यह लोगों को उकसाकर उनके हाथों में “पत्थर” थमा देते हैं। जिनके सामने हमारा सिस्टम आजादी के 70 साल बाद भी बौना दिखने लगता हैं।