डिजीटल मीडिया के कानून पर बहस छेड़कर भूली केंद्र और राज्य सरकारें, बोलने के मौलिक अधिकारों के खिलाफ डंडा चला रहा सिस्टम, चंद बुरे परिणामों का खामियाजा भोग रहे कई जिम्मेदार पत्रकार
भोपाल। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) की पहली पारी सबको याद है। उन्होंने पद संभालते ही डिजीटल क्रांति (Digital India Scheme) और भारत के बदलते नजरिए का नेतृत्व किया था। इस फैसले से फोनपे (Phonepe), पेटीएम (Paytm), भीम जैसे आन लाइन ट्रांजेक्शन की क्रांति सामने आई। डिजीटल योजना केवल यहां तक सीमित नहीं थी। यह व्यवस्था सरकारी विभागों (India E-Office) के अलावा कई अन्य सेक्टरों के लिए भी थी। जिसमें से डिजीटल मीडिया (Digital Media Issue) भी था। इसको लेकर केंद्र हो या फिर राज्य सरकारें अब तक कोई अंतिम निर्णय (Government Of India Digital Policy) पर नहीं पहुंच पाया है। नतीजतन, इस सुस्ती का फायदा अब वे लोग उठा रहे हैं जिन्हें पत्रकारिता (Digital Journalist) और उसके सिद्धांतों से कोई लेना—देना नहीं है। वे केवल निजी स्वार्थ पूर्ति के लिए इस पेशे को अपनाए हैं। ऐसे चंद बहरुपियों (Cheater Journalist) की वजह से डिजीटल मीडिया में भी प्रमाणित और अप्रमाणित वेब मीडिया (Uncertified Web Media) को लेकर बहस चल पड़ी है। सभी अपने हिसाब से इसको सर्टिफिकेट दे रहे हैं। वह चाहे नेता हो अथवा प्रशासन का कोई अधिकारी। आलम यह है कि इन नेता—अफसरों के अनुकूल से इतर किसी डिजीटल मीडिया ने रिपोर्टिंग की अथवा सच्चाई उजागर की तो उसके खिलाफ एफआईआर (Real Journalist Issue) से लेकर गिरफ्तारी का भय दिखाकर सच बोलने से रोका जा रहा है। डिजीटल मीडिया की नीतियों को लटकाने से सरकार का फायदा कम और आम नागरिकों का नुकसान ज्यादा हो रहा है।
सरकार की नींद उड़ाने वाली रिपोर्ट
देश कोरोना वायरस से जूझ रहा है। इस झंझावत का असर मीडिया में भी पड़ा। उसके सामने रेवेन्यू का संकट गहरा गया। इस झंझावत के चलते कई मीडिया हाउस में वेतन और कर्मचारियों की संख्या में कैची चलना शुरु हो गई है। इन मीडिया हाउस का दावा है कि इस कारण उत्पाद से लेकर कई तरह की चीजें घट गई है। हालांकि निजी संस्थानों में हर एक दशक बाद ऐसा ही कोई झंझावत सामने लाया जाता रहा है। देश में श्रम कानूनों को लेकर सरकारों पर सवाल खड़े होते रहे हैं। इन्हीं श्रम कानूनों के तहत मजीठिया वेज बोर्ड का भी मामला था। इस वेज बोर्ड के अनुसार पत्रकारों को वेतन का भुगतान होना था। कई संस्थानों से ऐसा करने की बजाय कर्मचारियों को ठेंगा दिखा दिया। इस बदलाव के बीच सत्ता में भी बदलाव चल रहा था। यह बदलाव होते ही डिजीटल क्रांति शुरु हो गई। जिसको जानने के बाद कुछ पत्रकारों ने डिजीटल मीडिया के जरिए रोजगार और वैकल्पिक इंतजाम को चुन लिया था। लेकिन, सरकारें आज तक इस डिजीटल मीडिया को लेकर कोई सार्थक अथवा सर्वमान्य नीतियां नहीं बना सकी है। दरअसल, इसके पीछे भी रसूखदार मीडिया हाउस की लॉबी ही बताई जा रही है। यदि सरकारों ने डिजीटल मीडिया को सर्टिफिकेट देना शुरु किया तो कई बड़े मीडिया हाउस के सामने उनके ही संस्थान से निकाले गए पत्रकार चुनौती बन सकते हैं। यह वे पत्रकार है जिनकी आवाजें कोई भी सरकार अपने बैंड के अनुसार तय किया करती थी। ऐसे बहुत सारे उदाहरण आपके सामने अभी भी मौजूद हैं। ताजा मामला लॉक डाउन का ही जिसमें बस्तर की आवाज एक वेब पोर्टल ने छत्तीसगढ़ सरकार की पोल खोल दी थी। यह पोल राशन वितरण को लेकर थी। जिसके बाद उसके खिलाफ आईटी एक्ट के तहत मुकदमा भी दर्ज किया गया। उसकी स्टोरी बीबीसी ने भी उठाई थी।
धौलपुर कलेक्टर के आदेश पर चुप्पी
भारत के संविधान में बोलने की आजादी दी गई है। यह प्रत्येक नागरिक का बोलने और पूछने का भी अधिकार है। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार ने इसको और अधिक मजबूत बनाते हुए सूचना का अधिकार नियम भी प्रभावी किया। इस कानून की बदौलत कई सामान्य काम को रफ्तार मिली। यह वे काम थे जो सरकारी मशीनरी की बेड़ियों में बंधकर रह जाते थे। देश में समाचार पत्र का प्रकाशन आजादी से जुड़ा विषय है। लेकिन, अब भारत विकास की राह में अग्रसर है। कई परिभाषाएं बदल रही है अथवा बदलने वाली है। सभी बातों का निष्कर्ष एकमात्र यह है कि जनसामान्य को मजबूत करने वाला सिस्टम बहुत अधिक प्रभावी होगा। इसके लिए डिजीटल मीडिया और सोशल मीडिया भी एक महत्वपूर्ण विषय है। लेकिन, सरकारी सिस्टम डिजीटल मीडिया और सोशल मीडिया में अंतर पता नहीं कर पाता है। ताजा मामला धौलपुर कलेक्टर के उस आदेश से उपजा है जिसमें उन्होंने यू—ट्यूब चैनल, सोशल मीडिया पर चल रहे कोरोनावायरस के भ्रामक समाचारों को रोकने के लिए सारे सोशल प्लेटफॉर्म पर बैन लगा दिया। यह आदेश 6 मई को जारी हुआ था। उन्होंने अपने आदेश में लिखा कि ऐसे लोगों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। इसलिए रोक लगाई जाती है। इस संबंध में कलेक्टर ने सुप्रीम कोर्ट के 31 मार्च, 2020 के आदेश को आधार बनाया।
मध्य प्रदेश में स्थिति खराब
मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chouhan) ने डिजीटल मीडिया को तवज्जो दिया। लेकिन, उन्होंने ऐसा तवज्जो दिया कि मामला हाईकोर्ट पहुंच गया। यह मामला वेबसाइट को दिए गए अनाप—शनाप विज्ञापनों का था। हालांकि इसके भीतर कई तकनीकी पेंच भी है जिसमें बारीकी से पड़ताल होना अभी बाकी है। सरकार हाईकोर्ट से सुलझती उससे पहले चौहान सरकार पंद्रह महीने के सत्ता वनवास पर चली गई। कुर्सी पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ (EX CM Kamal Nath) ने संभाली। उन्होंने प्रदेश को नए सिरे से रिफॉर्म करने में वक्त गुजार दिया। हालांकि इस दौरान टीवी और प्रिंट मीडिया को उन्होंने विज्ञापन बांटे। लेकिन, वेब मीडिया की नीति को साकार नहीं कर सके। यह साकार करने का जब वक्त आया और पूर्व जनसंपर्क मंत्री पीसी शर्मा (EX Minister PC Sharma) ने उसका ऐलान किया तब तक कांग्रेस की सरकार फिर सत्ता से वनवास पर चली गई। इसके बाद मुख्यमंत्री के रुप में प्रदेश को फिर शिवराज सिंह चौहान (CM Shivraj Singh Chouhan) का चेहरा मिला। यह सरकार आते ही कोरोनावायरस से जूझ रही है। इस कारण डिजीटल मीडिया की नीतियां अभी तक धरातल पर नहीं आ सकी है। आप सोच रहे होंगे कि यह हाल केवल मध्य प्रदेश का है तो ऐसा नहीं है। यह हालात केंद्र में भी बने हुए हैं। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर (Prakash Javdekar) ने डिजीटल मीडिया की नीतियों को लेकर सुझाव बुलाए थे। लेकिन, यह सुझाव अभी तक साकार रुप नहीं ले सके हैं।
यह है मैदानी हकीकत
प्रिंट की तरह डिजीटल मीडिया को प्रमोट करने के लिए सरकारों को पहल करना चाहिए। सामाजिक मुद्दों, भ्रष्टाचार को उजागर करती खबरों या जनचेतना लाने वाले विषयों पर केंद्रीत डिजीटल मीडिया अवार्ड शुरु किया जाना चाहिए। ताकि पत्रकारिता के पेशे में निर्मल प्रतियोगिता हो और उसका फायदा आम नागरिकों को मिले। केवल हीट को एजेंडा बनाने की बजाय मुद्दों और उसके विस्तृत रिपोर्ट को भी उसमें शामिल किया जाए। डिजीटल मीडिया के लिए स्वामी अथवा उसके संचालक के लिए शिक्षा अनिवार्य की बजाय वैकल्पिक बनाई जाए। ऐसे ही कई अन्य सुझाव है जिसकी फेहरिस्त काफी लंबी है। यदि इस विषय पर बात की गई तो काफी लंबा वक्त चाहिए रहेगा। बहरहाल हम मुद्दे पर वापस लौटते हैं और बात करते हैं मैदानी हकीकत की। पिछले दिनों भोपाल के बजरिया इलाके से एक खुलासा यू—ट्यूब चैनल का कार्ड लेकर घुमते मिला पुनीत माली (Puneet Mali) के कब्जे से शराब बरामद की गई थी। वह चैनल की आड़ में लॉक डाउन के दौरान यह काम कर रहा था। इसी तरह लॉक डाउन के दौरान ही दो युवकों के खिलाफ क्राइम ब्रांच ने अड़ीबाजी का मुकदमा दर्ज किया था। यह दोनों एक किराना व्यापारी से महंगे दाम में राजश्री बेचने पर रिपोर्ट दिखाकर बंद कराने की धमकी दे रहे थे। भोपाल में ऐसे मीडिया संचालकों की संख्या बहुत तेजी से पनप रही है। जिनकी वजह से वास्तविक पत्रकार अथवा पत्रकारिता से जुड़े व्यक्ति ठगा सा महसूस कर रहे हैं। हालांकि ऐसे व्यक्तियों से प्रशिक्षित पत्रकार की तुलना नहीं की जा सकती है। क्योंकि प्रशिक्षित पत्रकार अपनी रिपोर्ट से सिस्टम को किसी भी मंच पर जवाब देने के लिए मजबूर कर सकता है। लेकिन, सरकार की बेरुखी के चलते पत्रकारिता के पेशे को बदनाम कर रहे इन बहरुपियों (Fake Journalist) पर लगाम तभी संभव है जब डिजीटल मीडिया की नीतियां बनेगी।
अपील
देश वैश्विक महामारी से गुजर रहा है। हम भी समाज हित में स्पॉट रिपोर्टिंग करने से बच रहे हैं। इसलिए समाज और लोगों से अपील करते हैं कि यदि उनके पास भ्रष्टाचार, कालाबाजारी या जिम्मेदार अफसरों की तरफ से लापरवाही की कोई जानकारी या सूचना हैं तो वह मुहैया कराए। www.thecrimeinfo.com विज्ञापन रहित दबाव की पत्रकारिता को आगे बढ़ाते हुए काम कर रहा है। हमारी कोशिश है कि शोध परक खबरों की संख्या बढ़ाई जाए। इसके लिए कई विषयों पर कार्य जारी है। हम आपसे अपील करते हैं कि हमारी मुहिम को आवाज देने के लिए आपका साथ जरुरी है। इसलिए हमारे फेसबुक पेज www.thecrimeinfo.com के पेज और यू ट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें। आप हमारे व्हाट्स एप्प न्यूज सेक्शन से जुड़ना चाहते हैं या फिर कोई जानकारी देना चाहते हैं तो मोबाइल नंबर 9425005378 पर संपर्क कर सकते हैं।