क्या संयुक्त राष्ट्र का चार्टर चंद देशों को अहमियत देने वाला है?

Share

Charter of the United Nations26 जून: यूएन चार्टर के हस्ताक्षर दिवस पर विशेष

26 जून की तारीख यूं तो कई कारणों से इतिहास में दर्ज है, लेकिन इसी दिन संयुक्त राष्ट्र नाम की वैश्विक पंचाट की औपचारिक तस्वीर सामने आई थी। इसलिए दुनिया के शांति, सौहार्द और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिहाज से यह तारीख बेहद महत्वपूर्ण है। आज इसी बहाने चर्चा करते हैं संयुक्त राष्ट्र और उसके चार्टर के बारे में।

संयुक्त राष्ट्र के गठन की पहली अवधारणा 1 जनवरी 1942 को सामने आई थी। उस वक्त अमरीकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट ने इसके नाम का प्रस्ताव आगे बढ़ाया। हालांकि यह पहली बार नहीं था जब संयुक्त राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा हो। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 26 देशों ने एकजुट होकर लड़ाई जारी रखने का संकल्प लिया था तब उन्होंने अपना संकल्प संयुक्त राष्ट्रों का घोषणा-पत्र नाम से ही जारी किया था।

इसके बाद 26 जून 1945 को 50 देशों के प्रतिनिधियों की सैन फ्रांसिस्को में एक बैठक हुई। इसे संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का नाम दिया गया। इसका मक़सद एक अंतरराष्ट्रीय संगठन का चार्टर तैयार करना था। हालांकि संयुक्त राष्ट्र का चार्टर जिस अटलांटिक समझौते के आधार पर तय किया गया, उसके बारे में कहा जाता है कि वह विजेताओं के राष्ट्र को ही अहमियत देने वाला था। शुरुआत में पोलैंड इस सम्मेलन में शामिल नहीं था। इसलिए उसने बाद में चार्टर पर हस्ताक्षर किए और वह संयुक्त राष्ट्र का 51वां सदस्य बना।

संयुक्त राष्ट्र चार्टर की प्रति पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

इस चार्टर के बनने के करीब चार महीने बाद यानी 24 अक्तूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र औपचारिक रूप से वजूद में आया। इस दिन चार्टर को चीन, फ्रांस, सोवियत संघ, ब्रिटेन, अमरीका और बाकी अन्य सदस्य देशों की मंजूरी हासिल हुई। तब से हर साल 24 अक्तूबर को ही संयुक्त राष्ट्र दिवस मनाया जाता है।

गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र संघ पहले विश्व युद्ध के विनाश के बाद 1945 में उभरा और आज उसका लक्ष्य भावी पीढ़ियों को युद्घ की भयावहता से बचाना है। इसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखना और राष्ट्रों के बीच मित्रतापूर्ण संबधों को बढ़ावा देना है। संयुक्त राष्ट्र संघ का घोषणा-पत्र मानावाधिकारों का समर्थन करता है और इस बात को स्पष्ट करता है कि सभी देश सामाजिक, आर्थिक, मानवीय और सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना मिल कर करें।

कई सवालों से जूझ रही 74 साल पुरानी संस्था
इस अंतरराष्ट्रीय संस्था पर समय समय पर कई सवाल उठते रहे हैं। पहली बात तो यही है कि ​विश्व की सबसे बड़ी पंचायत के सामने जितने भी मसले आए उनमें से ज्यादातर का स्थायी हल नहीं निकला है। इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि संयुक्त राष्ट्र बना ही ऐसे समय में था जब दूसरे विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों की जीत सुनिश्चित हो चुकी थी और वे शांति स्थापित होने के बाद दुनिया की नई शक्ल को बनाने की जद्दोजहद में थे।

लेकिन ध्यान देना चाहिए कि आखिर संयुक्त राष्ट्र किसका संगठन है। चार्टर के आदर्शवादी वाक्यों और यथार्थ की कड़वी हकीकतों के बीच का फर्क इस सवाल जवाब देता है। असल में दुनिया की शक्ल गढ़ने के लिए बनाये गए इस संगठन में दुनिया के बड़े हिस्से जो गरीब थे, कमजोर थे और मुश्किलों से गुजर रहे थे, उसकी कोई हिस्सेदारी थी ही नहीं। न इसमें पराजित देशों का प्रतिनिधित्व था और न ही तत्कालीन साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ लड़ रहे देशों, समुदायों की आवाज प्रमुखता से थी।

सुरक्षा परिषद के पास ताकत
संयुक्त राष्ट्र की आमसभा की सदस्यता खुली थी, लेकिन इसके सभी जरूरी फैसले सुरक्षा परिषद लेती थी और इसमें गिने—चुने ताकतवर देश ही शामिल थे। जाहिर है कि इस कारण से संयुक्त राष्ट्र के फैसलों में बड़े देशों की टकराहट की छाप स्पष्ट रही है। सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों को मिला वीटो का अधिकार इस बात को पूरी तरह साफ कर देता है कि आखिर इस संस्था पर ताकतवर देशों का ही कब्जा है।

सुरक्षा परिषद में भी दो राष्ट्रों का दबदबा
सुरक्षा परिषद के पांच देशों में भी ज्यादातर फैसलों में अमरीका और सोवियत संघ बाद में रूस की टकराहट का असर दिखता है। असल में पांचों राष्ट्र भी लगातार एक जैसी स्थिति में नहीं रहे। ब्रिटेन और फ्रांस 1945 में खस्ताहाल थे और चीन उस वक्त गृहयुद्ध में बुरी तरह फंसा था। जबकि दूसरा विश्व युद्ध खत्म होते ही अमरीका और सोवियत संघ एक दूसरे के दुश्मन बन गए थे। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र इन दोनों की ताकत दिखाने का एक मंच ही बन गया था।

परमाणु बम के खतरे से आतंकी खतरे तक
संयुक्त राष्ट्र के शुरुआती उद्देश्यों में परमाणु अप्रसार शामिल रहा है, लेकिन शक्ति संतुलन का यह प्रयास बाद में अमरीका और रूस की ताकतों के बीच संतुलन में तब्दील हो गया और शीतयुद्ध की नींव पड़ी। इन हालात ने दुनिया में संयुक्त राष्ट्र की महत्वपूर्ण भूमिका को काफी नुकसान पहुंचाया है और आज तक यह संस्था इस लड़ाई से उबर नहीं सकी है।

यह भी पढ़ें:   चुनावी दौर में सोशल मीडिया पर झूठी खबरें और कानून के छोटे पड़ते हाथ

संयुक्त राष्ट्र की असफलताएं ज्यादा सफलता कम
गठन के बाद 75वें साल में प्रवेश कर चुके इस वैश्विक संगठन ​के हिस्से में जितनी सफलताएं हैं, उससे कहीं अधिक और बड़ी असफलताओं के लिए यह याद किया जाता है। चाहे फिलिस्तीन-इजराइल संघर्ष हो या चीन मुक्ति संग्राम, दोनों मामलों में अमरीका और सोवियत संघ के टकराव ने यूएन की भूमिका सीमित कर दी। 1954 का जिनेवा सम्मेलन हो या 1956 में स्वेज संकट, इन मोर्चों पर यह संस्था उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। कोरिया में युद्धविराम जरूर यूएन की सफलता में शामिल है, लेकिन इसके लिए गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका ज्यादा अहम मानी जाती है। स्थायी सदस्यों ने इसे अपने विशेषाधिकारों का उल्लंघन माना था और दोबारा आमसभा को ऐसा मौका नहीं दिया। दक्षिण एशिया की ही बात करें तो भारत-पाक विवाद को दूर करने या तनाव घटाने में भी संयुक्त राष्ट्र नाकाम साबित हुआ है। इसके अलावा मध्यपूर्व, ईरान या ताइवान के मामले इन सभी में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका निर्णयकारी नहीं रही। 1960 के दशक में कांगो संकट निवारण का बड़ा अभियान संयुक्त राष्ट्र ने चलाया लेकिन वहां भी नए नए देश में गैरजरूरी नरसंहार और विभाजन को रोकने में संयुक्त राष्ट्र नाकाम रहा। क्यूबा के मिसाइल संकट में तो संयुक्त राष्ट्र को दरकिनार करते हुए सोवियत संघ और अमरीका के बीच हॉटलाइन संपर्क स्थापित हुआ था और तनाव कम होना शुरू होने के कारण यूएन हाशिए पर पहुंच गया था।

वरिष्ठ पत्रकार पुष्पेश पंत तो इस मामले में साफ कहते हैं कि आज संयुक्त राष्ट्र संगठन की छवि एक ऐसी फिजूलखर्च नौकरशाही की है जो सिर्फ करमुक्त और सुविधा संपन्न स्वार्थों को निरापद रखने में अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देती है। वे बेहद तल्ख शब्दों में बताते हैं कि — महासचिव का पद गरिमामय जरूर है लेकिन जिस व्यक्ति की नियुक्ति इसपर होती है उसे सर्वसम्मति हासिल करने के चक्कर में लगभग बधिया बनाकर सिंहासन पर बैठाया जा सकता है।

बीते दो दशक में दुनिया में गरीबी और बढ़ी है और कई देशों में लोग भूख, गरीबी से मर रहे हैं। लेकिन किसी महाशक्ति को नाराज करने का खतरा न तो यूएन महासचिव उठा सकते हैं और न उसकी संस्था।

उपलब्धियां भी है संस्था के हिस्से में
बड़े देशों के बीच शक्ति संतुलन, युद्धों को रोकने में नाकामी और क्षेत्रीय विवादों में सीमित भूमिका को भूल जाएं तो संयुक्त राष्ट्र ने जमीनी स्तर पर जरूरी सवालों को पहुंचाने और उनके हल की कोशिशों में बड़ी भूमिका निभाई है। संयुक्त राष्ट्र के कुछ हिस्से इस मामले में बधाई के पात्र हैं— इनमें यूनेस्को, यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, आईएलओ, एफ़एओ शामिल हैं।

इन संस्थाओं ने दुनियाभर में आम इंसान की जिंदगी बेहतर बनाने के काम को मजबूती से आगे बढ़ाया है। गरीब देशों को इनके जरिये आर्थिक और तकनीकी सहायता मिली है। इन संस्थाओं ने विभिन्न सरकारों के साथ जनता का ध्यान गरीबी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर आदि मसलों पर खींचा है, जो बड़े देशों की लड़ाइयों में छूट रहे थे। इसके अलावा मानवाधिकार और पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं ने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है और जनउभारों को तेजी दी है। लिंगभेद, शरणार्थी समस्या, परमाणु हथियारों के खिलाफ वातावरण निर्माण आदि में भी यूएन की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी कुछ अन्य महत्वपूर्ण तारीखें
10 जनवरी 1946: पहली महासभा की बैठक। लंदन के वेस्टमिंस्टर सेंट्रल हॉल में। 51 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने दिया उद्घाटन भाषण।
17 जनवरी 1946: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पहली बैठक। लंदन में। इसमें कार्यवाही के नियम तय किए गए।
24 जनवरी 1946: संयुक्त राष्ट्र महासभा की ओर से पहला प्रस्ताव पारित किया गया। परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए करने पर जोर। साथ ही महाविनाश के अन्य हथियारों के उन्मूलन के लिए प्रयास करना शामिल।
1 फ़रवरी 1946: नॉर्वे के ट्रिग्वे ली संयुक्त राष्ट्र के पहले महासचिव बने।
जून 1948: फिलीस्तीन में पहला संयुक्त राष्ट्र निगरानी मिशन स्थापित किया गया।
24 अक्तूबर 1949: अमरीका के न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय की आधारशिला रखी गई, जो आज भी उसका मुख्यालय है।
27 जून 1950: सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव पारित कर सभी देशों से कहा कि वे उत्तर कोरिया के दक्षिण कोरिया पर हमले के ख़िलाफ़ एकजुट हों। वजह यह थी कि तब सोवियत संघ चीन को संयुक्त राष्ट्र में शामिल करने की मांग पर सुरक्षा परिषद का बहिष्कार कर रहा था। सोवियत प्रतिनिधि इसे प्रस्ताव को वीटो कर सकते थे।
जनवरी 1951: संयुक्त राष्ट्र की सेनाएं चीन की सेना के सामने हार गईं। इसके वे उत्तर कोरिया के उन हिस्सों से हट गईं, जिन पर उन्होंने कब्जा किया था। राष्ट्रपति ट्रूमैन ने घोषणा की कि संयुक्त राष्ट्र युद्ध संधि करना चाहता है, लेकिन जनरल मैकार्थर समझौते की शर्तों से संतुष्ट नहीं थे। वह चीन के साथ लंबा युद्ध चाहते थे और उन्होंने इस बारे में अपने विचार सार्वजनिक कर दिए। राष्ट्रपति ट्रूमैन ने जनरल मैकार्थर को पद से हटा दिया।
जुलाई 1953: दोनों कोरिया के बीच युद्ध विराम के लिए समझौता हुआ। एक सीमा रेखा निर्धारित की गई। तब कहा गया कि यह दस्तावेज युद्ध विराम के लिए अस्थाई समझौता है, जो स्थाई शांति कायम होने तक प्रभावी रहेगा। हालांकि स्थाई शांति समझौता कभी नहीं हुआ और दोनों देश तकनीकी तौर पर युद्ध में ही रहे।
1954: संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी उच्चायुक्त को यूरोपीय शरणार्थियों के लिए काम करने पर नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया।
7 नवंबर 1956: मिस्र के स्वेज नहर संकट पर विचार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा का पहला आपात सत्र बुलाया गया और पहला संयुक्त राष्ट्र आपदा बल (यूएनईपी) बनाया गया।
सितंबर 1960: 17 नए स्वतंत्र देशों ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता हासिल की, जिसमें से 16 देश अफ्रीका के थे। किसी एक साल में यह सबसे ज्यादा संख्या थी जब देशों ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता हासिल की थी।
12 अक्तूबर 1960: यह शीत युद्ध का चरम था। दोनों महाशक्तियां – अमरीका और सोवियत संघ – संयुक्त राष्ट्र में एक दूसरे के सामने आ गए। संयुक्त राष्ट्र महासभा में सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने खुद आकर फिलीपीन्स प्रतिधिनिमंडल के पश्चिमी उपनिवेशवाद के बारे में की गई टिप्पणी पर बयान दिया और अपना जूता मेज पर थपथपाया।
18 सितंबर 1961: दूसरे महासचिव डैग हैमर्सक्जोड की विमान हादसे में मौत। वह कांगो में एक मिशन पर जा रहे थे। यू थांट महासचिव बने.
अक्तूबर 1962: अमरीकी राष्ट्र जॉन एफ़ कैनेडी ने क्यूबा से सोवियत संघ के परमाणु मिसाइल हटाए जाने की मांग रखी। सात दिन तक दोनों महाशक्तियां इस मुद्दे पर अड़ी रहीं। यह मामला क्यूबाई मिसाइल संकट के नाम से जाना जाता है। आखिरकार सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने कदम पीछे खींचे और दुनिया को परमाणु युद्ध के खतरे से बचाया गया।
1965: संयुक्त राष्ट्र बाल कोष – यूनीसेफ – को शांति नोबेल पुरस्कार दिया गया।
22 नवंबर 1967: इसराइल और अरब देशों के बीच छह दिन की लड़ाई के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव संख्या 242 पारित की। इसका मकसद क्षेत्र में शांति स्थापना था।
12 जून 1968: परमाणु अप्रसार संधि को संयुक्त राष्ट्र महासभा में मंजूरी दी गई और सभी देशों से हस्ताक्षर का आहवान किया गया।
1969: संयुक्त राष्ट्र के एक और अंग अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
25 अक्तूबर 1971: चीन के प्रतिनिधि को महासभा में बैठने की इजाज़त दी जाती है।
1972: कुर्त वाल्दहीम को संयुक्त राष्ट्र का चौथा महासचिव चुना जाता है।
13 नवंबर 1974: संयुक्त राष्ट्र महासभा ने फि​लीस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) को मान्यता दी और उसे पर्यवेक्षक का दर्जा दिया।
1981: संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी उच्चायुक्त को दूसरी बार नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस बार एशियाई शरणार्थियों की मदद के लिए।
1980-1988: इराक और ईरान के बीच आठ साल युद्ध चला। 1980 में ही संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध विराम का आह्वान किया। इसे अनदेखा किया गया। सुरक्षा परिषद ने 1988 में प्रस्ताव पारित किया लेकिन दोनों देश 1990 में युद्ध विराम पर राजी हो सके।
1981: जेवियर पेरेज डी क्यूलर को पांचवां महासचिव बनाया गया।
दिसंबर 1988: संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया।
1990: इराक पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए और बाद में उसके खिलाफ बल प्रयोग की भी मंजूरी दी गई।
2 अगस्त 1990: इराक़ ने कुवैत पर हमला किया इसके बाद खाड़ी युद्ध शुरू हो गया। संयुक्त राष्ट्र ने इराक को कुवैत से निकलने के लिए 15 फरवरी तक का समय दिया लेकिन वह नहीं हटा तो 17 फरवरी को उस पर हमला कर दिया। इसे ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म कहा गया।
31 जनवरी 1992: न्यूयॉर्क में सुरक्षा परिषद की बैठक। पहली बार सभी 15 सदस्यों ने हिस्सा लिया।
जून 1992: रियो डी जनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन। 100 देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।
1992: बुतरस बुतरस गाली को छठा महासचिव बनाया गया।
1992: सोमालिया में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना भेजी गई। वहां हालात इतने खराब थे कि शांति अभियान जारी नहीं रह सका और राजधानी मोगादीशू में 1995 में अपना कार्यालय बंद करना पड़ां
अप्रैल 1994: दक्षिण अफ्रीका में संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों की देखरेख में चुनाव कराए गए।
25 मई 1994: नस्लवाद के कारण दुनिया में अलग—थलग पड़े दक्षिण अफ्रीका को 24 साल के अंतराल के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा में स्थान मिला।
1995: संयुक्त राष्ट्र ने अपने वजूद के 50 साल पूरे करने पर समारोहों के साथ अपना जन्म साल मनाया।

यह भी पढ़ें:   जन्मदिन विशेष: विवादों के दामाद उर्फ चुप्पी के बीच हर चुनावी चर्चा में शामिल शख्स
Don`t copy text!