CSDS Police Reform Report: मुसलमान नाम आते ही पुलिस “मन” बना लेती है कि यही है अपराधी

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CSDS Police Reform Report
सांकेतिक चित्र

देश में घटने वाले गंभीर अपराधों के 41 फीसदी स्पॉट पर नहीं पहुंचती पुलिस, महिला अपने ही महकमे में सम्मान को जूझती हुई

नई दिल्ली। मुसलमान का नाम आते ही पुलिस तय कर लेती है कि वह अपराधी होगा। यही हालात ट्रांसजेंडर को लेकर भी हैं। दोनों वर्गों के प्रति यह सोच कुछ पुलिस में मौजूद हैं। यह खुलासा हाल ही में रिलीज सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेव​लपिंग सोसायटी सीएसडीएस की (CSDS Police Reform Report) रिपोर्ट में हुआ है। यह रिपोर्ट एनजीओ कॉमन कॉज और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी के संयुक्त प्रयास से हुआ है। रिपोर्ट कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जे चेलमेश्वर ने जारी की है।

जानकारी के अनुसार यह सर्वे (CSDS Police Reform Report) 22 राज्यों के पुलिस कर्मचारियों से बातचीत के आधार पर बनाई गई है। रिपोर्ट बनाने के लिए लगभग 12000 पुलिस और परिवार के साढ़े दस हजार लोगों से बातचीत की गई। इसमें यह पता चला कि 50 फीसदी पुलिसकर्मी मानते हैं कि मुसलमान अपराध करने में गुरेज नहीं करते। इसी तरह महिलाओं और ट्रांसजेंडर के प्रति पुरूष पुलिसकर्मी पूर्वाग्रह रखते हैं। इसमें चार राज्य महाराष्ट्र, उत्तराखंड, झारखंड और बिहार में ऐसी सोच वाले पुलिसकर्मियों की संख्या ज्यादा हैं। रिपोर्ट (CSDS Police Reform Report) में यह भी कहा गया है कि धर्म के ​लिहाज से पुलिस में भी भेदभाव किया जाता है। जो ऐसा समझते हैं उनमें सिख समाज के पुलिसकर्मी ज्यादा हैं। गोकशी को लेकर 35 फीसदी पुलिसकर्मी भीड़ के न्याय को स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानते हैं।

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कानून से ज्यादा भीड़ नियंत्रण पर फोकस
रिपोर्ट (CSDS Police Reform Report) में यह बात भी सामने आई है कि दलित की शिकायतें झूठी होती हैं। ऐसा सोचने वाले सवर्ण जाति के पुलिसकर्मी ज्यादा हैं। इनका प्रतिशत कर्नाटक और उत्तर प्रदेश राज्य में ज्यादा हैं। इसी तरह 24 फीसदी पुलिस का मानना है कि शरणार्थी अपराध को ज्यादा अपनाते हैं। पांच में से दो पुलिस वालों का मानना है कि 16 से 18 साल के नाबालिगों को बालिग की तरह देखा जाना चाहिए। बातचीत में यह बात भी सामने आई है कि पुलिसकर्मियों को मानवाधिकार (Human Right), जातीय विषयों की बजाय प्रशिक्षण में भीड़ नियंत्रण पर ज्यादा फोकस करने के लिए कहा जाता है। बिहार में मानवाधिकार प्रशिक्षण का प्रतिशत काफी निराशाजनक रहा।

अपने ही महकमे में वजूद की तलाश
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि मैदानी पोस्टिंग में पुरूषों को ज्यादा अवसर मिलते हैं। जबकि महिलाओं को थाने के भीतर वाले काम जैसे रजिस्टरप, डाटा आदि संभालने का काम दिया जाता है। बातचीत में यह बात सामने आई है कि 50 फीसदी से ज्यादा महिलाएं अपने आपको पुरूष पुलिसकर्मियों के सामने वजूद को लेकर संघर्ष करती हैं। यह भेदभाव (Lady Women Discrimination) उंचे पद पर बैठी महिलाओं के साथ भी होता है। यह असर बिहार, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल में ज्यादा देखा गया। पांच में से एक महिला पुलिसकर्मी ने माना कि पुलिस स्टेशन में उनके लिए अलग टॉयलेट नहीं हैं। 20 फीसदी महिला पुलिसकर्मी का कहना था कि कार्यस्थल पर कोई समिति ही नहीं हैं।

संसाधनों से जूझती पुलिस
रिपोर्ट (CSDS Police Reform Report) में यह साफ हो गया है कि सीसीटीएनएस, सीसीटीवी समेत अन्य सुविधाएं बेमानी है। जब तक संसाधन मुहैया नहीं होंगे तो परिणाम सकरात्मक नहीं मिलेंगे। 46 फीसदी पुलिसवालों ने कहा कि उन्हें जब सरकारी वाहन की जरूरत थी तब वाहन मौजूद नहीं था। 41 फीसदी मानते हैं कि वे क्राइम सीन पर इसलिए नहीं पहुंच सके क्योंकि उनके पास स्टाफ नहीं था। 42 फीसदी पुलिसवालों के मुताबिक, पुलिस स्टेशन पर फोरेंसिक टेक्नोलॉजी से जुड़ी सुविधाएं नहीं थीं। तीन में से एक पुलिसवाले को फोरेंसिक की कोई ट्रेनिंग नहीं दी गई। 17 फीसदी ने कहा कि उनके पुलिस स्टेशन पर क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग सिस्टम (CCTNS) मौजूद नहीं है।

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