Unlawful Activities (Prevention) Act: स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार करने बने कानून की आवश्यकता बताएं: CJI

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Unlawful Activities (Prevention) Act: एडिटर्स गिल्ड समेत अन्य याचिकाओं की सुनवाई के बाद मुख्य न्यायाधीश ने सरकार से मांगी है सफाई

Unlawful Activities (Prevention) Act
सुप्रीम कोर्ट, फाइल फोटो

दिल्ली। देश के गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (Unlawful Activities (Prevention) Act) को लेकर एक बार फिर केंद्र सरकार सवालों के घेरे में आ गई है। हालांकि यह कानून 1967 में बना था। जिसमें आखिरी बार संशोधन 2019 में किया गया था। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एडिटर्स गिल्ड और सेना के एक पूर्व मेजर जनरल ने याचिका लगाई थी। जिसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना (CJI NV Ramna) की बैंच ने की। इसमें केंद्र सरकार से पूछा गया कि जिसके खिलाफ महात्मा गांधी जैसे व्यक्तित्व अंग्रेजों से लड़े उसी कानून को सरकार आज भी लागू कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने कानून को जांच का विषय बताकर केंद्र से जवाब मांगा है।

ऐसे हुए सवाल—जवाब

बैंच में प्रधान न्यायाधीश के अलावा जस्टिए एएस बोपन्ना (Justice AS Bopanna) और ऋषिकेश रॉय (Justice Hrishkesh Roy) भी शामिल थे। तीन सदस्यीय बैंच ने अटॉर्नी जनरल से सवाल पूछा कि 75 साल बाद भी इसे कानून में रखना जरुरी है क्या?, बैंच ने एक मुहावरा कहते हुए अपनी तल्खी अटॉर्नी जनरल को बता दी। बैंच ने कहा कि बढ़ई को लकड़ी काटने की छूट दी थी, उसने तो पूरा जंगल काट दिया। सुनवाई के दौरान 66—ए के रोक के बावजूद लगाए जाने के मामले को लेकर भी बैंच ने सरकार को कठघरे में किया। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि एक खास वर्ग के लोगों की आवाज किसी को पसंद नहीं है तो वह इस कानून का दुरुपयोग करेगा। बैंच ने कटाक्ष करते हुए कहा कि हुमने सुना है कि सरकार पुराने कानूनों से छुटकारा दिला रही है, तो फिर इस कानून को लेकर दिलचस्पी क्यों नहीं हैं।

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पहले भी दिया था नोटिस

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सु्प्रीम कोर्ट का फाइल फोटो

यह सुनवाई वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए हुई थी। बैंच ने कहा कि किसी दूरदराज गांव में व्यक्ति को ठीक करने के लिए पुलिस अधिकारी इस कानून का इस्तेमाल कर सकता है। बैंच ने यह भी कहा कि देशद्रोह मामले में सजा का प्रतिशत काफी कम है। इसलिए इसमें विचार करने की आवश्यकता है। अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल (Atorny Genral KK Venugopal) ने सरकार का बचाव करते हुए कहा कि इस कानून को रहने दिया जाए। अदालत चाहे तो दुरुपयोग रोकने के लिए आदेश दे सकती है। इसी कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य दो सदस्यीय बैंच ने भी पिछले दिनों सरकार से जवाब मांगा था। यह याचिका मणिपुर के पत्रकारों कन्हैया लाल शुक्ला (Kanhaiya Lal Shukla) और किशोरचंद्र वांगखेमचा (Kishore Chandra Wangkhemcha) की तरफ से लगाई गई थी।

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इस बात को लेकर है विवाद

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Social Media File Image

जेएनयू कांड, दिल्ली हिंसा समेत तमाम कई अन्य घटनाओं में यूएपीए कानून का इस्तेमाल हुआ। जिसमें कई न्यायालयों ने पुलिस की जांच को कठघरे में खड़ा किया। इस कानून में आतंक निरोधी दस्ता एनआईए को बहुत सारे अधिकार दिए गए हैं। इस कानून में पांच साल से लेकर आजीवान कारावास का प्रावधान है। कानून की धारा 15 का नागरिकों के बोलने के अधिकार 19—1 से सीधे टकराता है। इसलिए इस विषय पर कई पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने अभियान चल रखा है। एनडीटीवी के प्राइम टाइम में पत्रकार और एंकर रवीश कुमार कई खामियों को उजागर भी कर चुके हैं। हालांकि सरकारों ने इससे पहले पोटा और टाडा जैसे सख्त कानून को भी समाप्त किया है।

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