आनन—फानन में बदलाव के पीछे क्या वजह बताएगी सरकार, फैसले के खिलाफ अदालत में दी जा सकती है चुनौती, रिटायर्ड डीजीपी और डीजी ने कहा यह सरकार का विवेक लेकिन कमजोर
भोपाल। (Bhopal Hindi News) मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh News) में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार (MP Congress Government) का चुनाव से पहले नारा था वक्त है बदलाव का। इस नारे पर सरकार ने काम तो शुरु किया। लेकिन, विपक्ष में भारतीय जनता पार्टी (Bhartiya Janta Party) इस नारे को केवल ट्रांसफर—पोस्टिंग तक सीमित रहने का दावा कर रही है। सरकार को लगभग सवा एक साल कार्यकाल हो चुका है। इस कार्यकाल के भीतर में उसने दो डीजीपी बदल दिए। अभी भी जो डीजीपी है वह अतिरिक्त प्रभार का बनाया गया है। यानि साफ है कि छह महीने के भीतर में सरकार को नया डीजीपी फिर तलाशना पड़ेगा। सरकार ने यह फैसला गुरुवार को लिया था। जिसका हल्ला एक पखवाड़े से मचा हुआ था। अब निर्णय सामने हैं तो सरकार कठघरे में आ गई है। पुलिस महकमे के पूर्व अफसर इस फैसले को सही नहीं मान रहे। वहीं सामाजिक कार्यकर्ता का दावा है कि इस फैसले को भविष्य में कभी भी चुनौती दी जा सकती है। यानि साफ है कि सरकार की मुश्किलें इस मामले में बढ़ने वाली हैं। इधर, प्रभारी और स्थायी डीजीपी के अधिकार को लेकर भी बहस चल पड़ी हैं।
सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन
इस मामले में रिटायर डीजीपी सुभाष चंद्र त्रिपाठी ने कहा कि प्रभारी और स्थायी डीजीपी में कोई फर्क नहीं होता। वह काम सरकार का ही करता है। नीतिगत फैसले गृह विभाग ही बनाता है, डीजीपी केवल उसमें अपना अभिमत देता है। डीजीपी चयन की जरुर एक प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट ने बनाई हुई है। जिसमें यूपीएससी पैनल का अहम रोल होता है। इसमें राज्य की तरफ से मुख्य सचिव और सीनियर एक आईएएस अफसर पैनल में होता है। पूर्व डीजीपी ने एक सवाल के जवाब में कहा कि किसी भी पद पर दो साल अफसर रहता है। यह नियम सुप्रीम कोर्ट का बनाया हुआ है। इसमें सरकार को यह अधिकार जरुर है कि वह दो साल के पहले किसी भी अफसर को हटा सकती है। लेकिन, सरकार को ही यह बताना पड़ेगा कि उसके पीछे वजह क्या थी। यह तो आने वाले वक्त में सामने आ ही जाएगा। उस वक्त सरकार को ही उसका सामना करना है।
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राजनीतिक इंटेलीजेंस डीजीपी का काम नहीं
पूर्व डीजी रहे अरुण गुर्टू ने कहा कि प्रभारी और स्थायी डीजीपी रहने में बहुत फर्क होता है। स्थायी डीजीपी नीतिगत निर्णय लेता और बना सकता है। उसको खारिज करने से पहले सरकार सोचती है। दरअसल, पुलिस महकमा सरकार का दूसरा बड़ा महकमा कहा जाता है। लेकिन, सरकार के इस फैसले से पुलिस विभाग बहुत कमजोर हुआ है। सरकार को इतना भी समय नहीं रहा कि वह स्थायी डीजीपी के आने तक रुक सके। यह संदेश मध्य प्रदेश के लिए दूसरे राज्यों के सामने ठीक नहीं गया हैं। गुर्टू ने कहा कि मीडिया में प्रकाशित रिपोर्ट का अध्ययन किया है जिसमें यह बताया गया है कि हार्स ट्रेडिंग की इनपुट न होने की वजह ये सरकार ने यह फैसला लिया है। यह बेहद गंभीर और आपत्तिजनक हैं। किसी भी डीजीपी का काम यह नहीं होता कि वह पक्ष—विपक्ष के मामलों से जुड़ी जानकारी जुटाए। यदि यह मामला देशद्रोही गतिविधियों पर होता तो शायद फैसला सम्मानजनक होता। गुर्टू ने कहा इस फैसले से सरकार की ही किरकिरी हुई है। इसके परिणाम भविष्य में देखने को भी मिलेंगे।
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राजेन्द्र कुमार ने संभाला प्रभारी डीजीपी का अतिरिक्त प्रभार
भारतीय पुलिस सेवा में वर्ष 1985 बैच के आईपीएस राजेन्द्र कुमार ने शुक्रवार सुबह मध्यप्रदेश डीजीपी का अतिरिक्त कार्यभार संभाल लिया। यह कार्यभार विजय कुमार सिंह ने उन्हें सौंपा। राजेन्द्र कुमार सायबर सेल में महानिदेशक हैं। उनके पास मध्य प्रदेश के बहुचर्चित हनी ट्रेप केस में एसआईटी का भी प्रभार हैं। राजेन्द्र कुमार ने बीएचयू से सिविल इंजीनियरिंग किया है। राजेन्द्र कुमार होशंगाबाद, रायगढ़, शिवपुरी, सीधी और सतना में एसपी रहे हैं। इसके अलावा रीवा, सागर और इंदौर में आईजी का कार्यभार संभाला है। इधर, तत्कालीन डीजीपी विजय कुमार सिंह ने खेल संचालक की कुर्सी संभाल ली हैं।
फैसलों को चुनौती देने की तैयारी
इस फैसले को असंवैधानिक बताते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अजय दुबे ने कहा यह दुर्भाग्यपूर्ण है। डीजीपी जैसी बड़ी पोस्ट का सम्मान सरकार ने नहीं रखा। सरकार ने देश और न्याय पालिका की संवैधानिक नियमों को ताक पर रखकर यह फैसला लिया है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे फैसलों के खिलाफ हम न्यायालय में जाते रहे हैं। इस निर्णय के खिलाफ भी हम न्यायालय की शरण में जाएंगे। दुबे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन है कि किसी भी अफसर को दो साल के पहले नहीं हटाया जा सकता। लेकिन, सरकार ने बिना कोई ठोस कारण जाने फैसला दे दिया।
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